31 मई का दिन भारतीय इतिहास में सदा याद किया जाता रहेगा क्योंकि 30 व 31 मई 1857 को ब्रिटिशकालीन भारत में दुनिया की सबसे प्रशिक्षित अंग्रेजी फौज व भारत के क्रान्तिकारियो की उत्साही सेना का मुकाबला गाजियाबाद में बहती हिंडन नदी के तट पर हुआ था। तब हिंडन हरनंदी नदी कहलाती थी व आज की तरह मैली कुचली नहीं बल्कि साफ व स्वच्छ बहती थी जिसके किनारे का जंगल भी हरा भरा व घना था।
बात 1857 की क्रान्ति की है जिसे भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम कहा गया है,यह आज तक वैश्विक इतिहास में सबसे बडा सशस्त्र आंदोलन था जिसमें लाखो लोगो ने भाग लिया व लाखो की संख्या में ही वीर यौद्धा शहीद हुए। यह सशस्त्र क्रान्ति केवल असंतुष्ट सैनिको की नहीं थी बल्कि दुखी व पीडित किसान , मजदूर , हर जाति-धर्म व हर जमीन से जुडे आदमी की हिंसक प्रतिक्रिया थी जिसके बारे में यूरोप के महान राजनीतिक विचारक कार्ल मार्क्स ने भी लिखा कि यह यूरोप के उपनिवेशवाद के खिलाफ कामगारो व किसानो की सशस्त्र आवाज है। कार्ल मार्क्स ने करीब से इस विद्रोह का विश्लेषण किया व इसे पूंजीवाद के खिलाफ लडाई भी लिखा।
तत्कालीन विश्व में उथल पुथल का दौर था , यूरोपियन देशो में औपनिवेश बनाने की होड मची थी व यूरोप में औधोगिक क्रान्ति चल रही थी। अंग्रेजो के पास बेहतरीन हथियार व संचार के साधन थे ,साथ ही ब्रिटेन की सेना विश्व की सर्वाधिक प्रशिक्षित फौजो में गिनी जाती थी ।
दस मई को शाम पांच बजे जैसे ही मेरठ की कोतवाली में पहली जंग ए आजादी की शुरूआत कोतवाल धन सिहँ गुर्जर के नेतृत्व में हुई ,उसके दो दिन बाद ही तब का गाजियाबाद व बुलन्दशहर भी गदर का हिस्सा बन गया और देखते ही देखते दादरी व बुलन्दशहर के क्रान्तिकारियो ने सिकंदराबाद,गाजियाबाद , बुलंदशहर को अपने कब्जे में ले लिया ।
इन क्रान्तिकारीयो का नेतृत्व दादरी के राजा राव उमराव सिहँ भाटी कर रहे थे व दूसरी ओर उनके ही घनिष्ठ मित्र मालागढ के नवाब वलीदाद खाँ कर रहे थे। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर जो कि क्रान्तिकारियो के द्वारा सर्वसम्मति से चुने गये नेता थे ने नवाब वलीदाद खाँ व राजा उमराव सिहँ भाटी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कमान संभालने का जिम्मा सौंप दिया |
अंग्रेजो की अलग अलग छावनियाँ क्रान्ति को कुचलने को तैयार होने लगी व इस बात की प्रबल आशंका थी कि गदर के गढ मेरठ को अंग्रेज फिर से कब्जे में लेकर क्रान्तिकारियो के मनोबल को तोडेंगे । कारण यह भी था कि मेरठ मण्डल क्रान्तिकारीयो को अनाज , खाद्य सामग्री व अन्य सामान पहुँचा रहा था। यह आशंका सच भी साबित हुई व इसके लिये अंबाला की सैनिक छावनी से अंग्रेज जनरल बर्नार्ड के नेतृत्व में अंग्रेजो व अंग्रेजपरस्तो की एक विशाल सेना दिल्ली पर आक्रमण करने के लिये चल पडी मगर जनरल बर्नार्ड ने दिल्ली पर हमला करने से पहले मेरठ को कब्जे में लेने व वहाँ से अंग्रेजो के दूसरे सैन्य बल जो कि सेनापति विल्सन के नेतृत्व में जमी थी ,को साथ लेना जरूरी समझा तथा मेरठ की ब्रिटिशसेना व जनरल आर्कलेड विल्सन को गाजियाबाद में हिंडन नदी पार करके मिलने का गुप्त संदेश भिजवा दिया । इस बात की भनक बादशाह बहादुरशाह जफर को पहुँची उन्होने मुगल शहजादे मिर्जा अबू बक्र व नवाब वलीदाद खाँ को क्रान्तिकारी राष्ट्रवादी सेना के साथ इस हमले को रोकने के लिये भेज दिया।
मिर्जा अबू बक्र व नवाब वलीदाद खाँ ने दादरी के राजा उमराव सिहँ भाटी से सहायता मांगी । इस तरह क्रान्तिवीरो की राष्ट्रवादी सेना राजा उमराव सिहँ भाटी के नेतृत्व में हिंडन के तट पर जा पहुँची जहाँ मेरठ की ओर से अंग्रेज सेना सेनापति विल्सन के साथ आनी थी । भारतीयो ने हिंडन नदी के पुल को ध्वस्त कर दिया ताकि अंग्रेजसेना नदी ना पार कर सके व दोनो अंग्रेजसेनाओ को मिलने से रोक दिया जाये!
क्रान्तिकारी सेना वहीं हरनंदी तट पर पडाव लगाकर ठहर गयी , युद्ध की घडी निकट आने लगी व आखिरकार 30 मई 1857 को अंग्रेजो की सेना व क्रान्तिकारी सेना का भीषण युद्ध होने लगा।
अंग्रेजो के पास तोप,कुशल घुडसवार , आर्टिलरी,पैदल प्रशिक्षित फौज , हिंदुस्तान सैपर्स एवं माइनर्स कंपनी , शाही राइफल्स कंपनियाँ , आग उगलती तोपें व तोपची व बहुत कुछ यूरोपियन कारखानो में बना गोला बारूद मौजूद था वहीं दूसरी ओर हिंदुस्तानियो के पास गिनी चुनी तोंपे , किसान लडाके , लूटे हुए हथियार, घुडसवार व परंपरागत हथियार आदि थे । भारतीय क्रान्तिकारी सैनिको ने तोप ऊँचे टीले पर खडी करके अंग्रेजो की ओर रुख मोड दिया व उन पर टूट पडे , अंग्रेजी सेना के पांव उखडने लगे । तभी अंग्रेजी सेना ने भारतीय सेना के बांये भाग पर हमला किया जिससे क्रान्तिकारियो को पीछे हटना पडा। इसके साथ ही भारतीय सेना ने एक युद्धनीति अपनाई , जब अंग्रेजी सेना वहाँ पहुँची ,कुछ वीर सैनिको ने अपनी ही तोपो व गोला बारूद के गोले बारूद में आग लगा दी व खुद तो शहीद हुए मगर साथ ही अंग्रेजो की बहुत सी सेना भी राख कर दी ,साथ ही बहुत से अंग्रेजो व एक मुख्य सेनापति को यमलोक पहुँचा दिया। भारतीय बलिदानी सैनिको ने देश की आजादी के लिये आत्मउत्सर्ग करके बलिदान व वीरता का नया अध्याय लिखा व एक अविस्मरणीय मिशाल कायम की ।
अंग्रेजी सेना पर भारतीय सैनिको ने लगातार हमले जारी रखे व अंग्रेजो के बहादुरी व श्रेष्ठता के दंभ को मिट्टी में मिला दिया,अंग्रेजो की विशाल प्रशिक्षित सेना ने भारतीयो की वीर सेना के सामने घुटने टोक दिये व भाग खडे हुए। 1 जून को गोरखा पल्टन की विशाल सैन्य टुकडियाँ भी आ पहुँची मगर अंग्रेजी सेना भारतीय क्रान्तिकारी सैनिको से बहुत भयभीत हो उठी था कि दोगुना सैन्यबल होने के बावजूद वे फिर से हमला करने की हिम्मत नहीं जुटा पाये व वापस लौट बैरंग लौट गये। इस प्रकार राजा उमराव सिहँ व क्रान्तिकारी सेना ना केवल विजयी रहे बल्कि युद्ध जीतकर यूरोपियन युद्धनीति को पटखनी भी दी। अगर यूरोप में यह घटना घटी होती तो इसे बडे स्तर पर याद किया जाता पर भारत में हम भारतीयो ने ही इसे भुला दिया है ।
1857 का ये युद्ध भारतीय इतिहास में ही नहीं वरन वैश्विक इतिहास में भी एक यादगार युद्ध माना जायेगा क्योंकि अंग्रेजो की अंग्रेजी सेना को हराना चमत्कारी घटना जैसा था मगर यह सच हुआ व अंग्रेजो को हार माननी पडी।
हालांकि अंग्रेज जनरल विल्सन ने इसके लिये अत्यधिक गर्मी को दोषी ठहराया कि अंग्रेजो के लिये गर्मी असहनीय थी मगर भारतीय ही क्या हिमालय का आशीर्वाद लेकर लड रहे थे ,वे भी लू के थपेडो से व अंग्रेजो की आग उगलती तोपेो से जूझ रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने पत्राचार में भारतीय सैनिको की बहादुरी व पराक्रम की खुले दिल ये प्रशंसा करते हुए लिखता है कि ऐसे ही युद्ध इतिहास में चमत्कारी होते हैं व सदैव याद रखे जाते हैं।
राजा उमराव सिहँ भाटी के सेनापतित्व में भारतीय सैनिको ने वीरता व पराक्रम का जौहर दिखाते हुए इतिहास में सदा के लिये खुद को अमर कर दिया । इस ऐतिहासिक 1857 के हिंडन के युद्ध में नवाब वलीदाद खाँ व मिर्जा अबू बक्र को भी सदा राजा उमराव सिहँ भाटी के साथ एक समान सम्मान व श्रद्धा के साथ याद किया जाना चाहिये । यह लडाई सही मायनो में गंगा जमुनी तहजीब के साझे मोर्चे ने लडी जिसमें पठान सैनिक व मुगल सेना भी एक हिंदू गुर्जर राजा के नेतृत्व में भारतवर्ष की गुलामी को दूर करने के लिये लडे । यह हिंदू मुस्लिम एकता की अनोखी व विजयी घटना है व गंगा जमुनी तहजीब का मीठा व सच्चा मिलन ।
इस युद्ध विजय के बाद खुर्जा बुलंदशहर तक राजा उमराव सिहँ भाटी के नेतृत्व में क्रान्तिकारी राज स्थापित हो गया व उमराव सिहँ ने अंग्रेजो की तहसील व चौकियाँ नष्ट कर दी । बाद में महीनो तक अंग्रेजो ने इधर की ओर रुख तक नहीं किया व दादरी राज्य के अन्तर्गत राज चलता रहा। मगर बहुत से अंग्रेजपरस्तो की शह के कारण अंग्रेजो ने फिर से क्रान्ति को कुचलने के लिये पूरे भारत से अंग्रेजी सेनाओ को इकटठा करना शुरू किया व जल्द ही ब्रिटेन से भी मदद पहुँचने लगी। क्रान्ति का दमन शुरू हुआ।
26 सितम्बर 1857 को अंग्रेजो की ताकतवर व आधुनिक सैन्य हथियारो से लैश सेना का मुकाबला राजा उमराव सिहँ भाटी की सेना से कासना – सूरजपुर के मध्य में हुआ जिसमें क्रान्तिकारी बहादुरी पूर्वक लडे पर अंग्रेजो की विशाल व अत्याधुनिक सेना के सामने शहीद होने लगे। कई सौ सैनिक शहीद हुए एवं राजा उमराव सिहँ भाटी व उनके चाचा राव रोशन सिहँ भाटी व चचेरे भाई राव बिशन सिहँ भाटी को अंग्रेजो ने अन्य क्रान्तिकारीयो के साथ पकड लिया जिन्हें बाद में बुलंदशहर के काला आम पर फांसी दे दी गयी व राजा उमराव सिहँ भाटी को हाथी के पैरो तले कुचलवा दिया । जैसा कि होता आया है कि इस सन 1857 की क्रान्ति में आम जनमानस व किसानो की भारी अनदेखी हुई है व उन्हें बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया गया जबकि जाति धर्म की बैड़िया तोड़कर आम जनमानस ने इस ऐतिहासिक महाक्रान्ति में बढ चढकर हिस्सा लिया व भारतवर्ष के भविष्य के लिये शहीद हुए।
भारतीय इतिहास में 1857 के हिंडन के युद्ध को भी हल्दीघाटी का युद्ध,पानीपत का युद्ध, तराईन का युद्ध व प्लासी के युद्ध की तरह पढाया जाना चाहिये व उन अमर शहीदो के पराक्रम को आधुनिक पीढी से रूबरू कराया जाना हमारा नैतिक दायित्व है। आज जरूरत है कि गौतमबुद्धनगर में उमराव सिहँ भाटी को यथोचित सम्मान मिले व साथ ही वलीदाद खाँ व मिर्जा अबू बक्र को भी स्मरण किया जाए । 30 व 31 मई को हिंडन युद्ध के लिये हिंडन युद्ध दिवस की तरह याद किया जाये ।
– मनीष पोसवाल