Thursday, December 5, 2024

इस निर्देशक ने फिल्मों में की थी प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत, सामाजिकता को फिल्मी पर्दे पर दिखाने के लिए थे मशहूर

भारतीय सिनेमा का इतिहास हमेशा से गौरवशाली रहा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मशहूर फिल्म प्रोड्यूसर और लेखक दादा साहेब फाल्के हैं। उनके ही प्रयासों से हिंदी सिनेमा की नींव रखी गई थी। बाद में अन्य निर्देशकों और कलाकारों ने समय-समय पर फिल्म की विधाओं में बदलाव किए। इन्हीं में से एक नाम नितिन बोस का भी शामिल है। उन्होंने अपने फिल्मी करियर के दौरान पारंपरिक फिल्म तकनीक में बदलाव करके नई तरह की फिल्मों का निर्माण शुरु किया था। खास बात यह है कि नितिन बोस को हिंदी फिल्मों में प्लेबैक सिंगिंग का जनक माना है। उन्होंने ही साल 1935 में अपनी फिल्म भाग्यचक्र में गाने की शुरुआत की थी।

nitin bose

1934 में न्यू थिएटर्स से की थी करियर की शुरुआत

बता दें, मशहूर फिल्म निर्देशक और लेखक नितिन बोस का जन्म 26 अप्रैल 1897 को कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता हेमेंद्र मोहन बोस अपने ज़माने के जाने-माने फोटोग्राफर थे। उन्होंने अपने बेटे को भी फोटोग्राफर बनाने का प्रण लिया था। इस वजह से हेमेंद्र ने नितिन को छोटी उम्र से ही इसकी बारिकियां सिखाना प्रारंभ कर दिया था। धीरे-धीरे नितिन बड़े हुए और वे फोटोग्राफी में अपना हाथ आज़माने लगे। साल 1934 में नितिन बोस ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत न्यू थिएटर्स से की थी। उनकी पहली हिंदी फिल्म का नाम चंडीदास था। इस फिल्म को रोमांटिक और भावनात्मक फिल्मों की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है।

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प्लेबैक सिंगिंग की करी थी शुरुआत

बहरहाल, यह वो दौर था जब भारतीय फिल्मों में गाने नहीं हुआ करते थे और अगर होते भी थे तो उन्हें डायलॉग्स की तरह सेट पर ही बुलवाया जाता था। लेकिन नितिन दास ने 1935 में अपनी फिल्म भाग्यचक्र में इतना बड़ा एक्सपेरीमेंट किया था जिसकी कर्जदार आज पूरा हिंदी सिनेमा है। उन्होंने अपनी इस फिल्म के जरिये भारतीयों को प्लेबैक सिंगिंग से रूबरु करवाया था। इसी फिल्म का रीमेक धूप-छांव नाम से तैयार किया गया था। इसमें भी उन्होंने प्लेबैक सिंगिंग का इस्तेमाल किया था। दर्शकों को यह फिल्म इतनी भाई कि प्लेबैक सिंगिंग एक रिवाज ही बन गया।

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गंगा-जमुना के जरिये समाज को दिखाया आइना

मालूम हो, नितिन बोस ने अपने करियर के दौरान कई सुपरहिट फिल्मों का निर्माण किया था। इन्हीं में से एक थी गंगा-जमुना। दिलीप-कुमार और वैजयंतीमाला अभीनीत इस फिल्म को आज भी उतना ही पसंद किया जाता है जितना कि उस दौर में किया गया था। इस फिल्म के जरिये नितिन बोस ने समाज की उस विचारधारा को फिल्मी पर्दे पर उकेरने की कोशिश की थी जिसमें व्यक्ति अपनी जीवनशैली को बदलने के लिए गांव से शहर के चक्कर लगाता है। उसकी जिंदगी आलीशान भले ही हो जाती है लेकिन वह धीरे-धीरे अपने मूल्यों को खो देता है।

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दादा साहेब फाल्के पुरुस्कार से नवाज़ा गया

गौरतलब है, डाकू मंसूर, धूप-छांव, बड़ी-बहन जैसी तमाम सुपरहिट फिल्में बनाकर समाज को आयना दिखाने वाले नितिन बोस को साल 1977 में फिल्म जगत से उत्कृष्ट सम्मान दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाज़ा गया था। उनका निधन 14 अप्रैल 1986 को लंबी बीमारी के चलते कोलकाता में ही हुआ था।

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