तिब्बती बड़े धार्मिक और ट्रेडिशनल किस्म के लोग होते हैं। इसीलिये आश्चर्य नहीं है कि वहाँ हर दूसरे परिवार का कोई सदस्य बौद्ध भिक्षु या monk बन जाता है। जब चीन तिब्बत में घुसा तो इन शांतिप्रिय लोगों को सही से लड़ना आया ही नहीं। चीन जैसे बड़े देश के सामने कोई बिसात भी नहीं थी। हजारो तिब्बती मरे।
मंदिर में रह रहे पुजारी और पुजारिनों को नँगा कर के जबर्दस्ती आपस में शोषण करवाया गया। शारीरिक शोषण और हत्या दिनचर्या थी। कई-कई दिनों तक हर इलाके में कर्फ्यू रहता था और लोग भूखे-बीमार, घरों में पड़े रहते थे। जब चीन का वर्चस्व बढ़ना शुरू हुआ तो शुरुआती दिनों में भागना वनिष्पत ज्यादा आसान था। लाखों तिब्बती भाग गये।
चीन के बढ़ते दबदबे के साथ यह मुश्किल होता गया। ज्यादा चेकपोस्ट बनते गये। नेपाल के शेरपा और कई अन्य जातियाँ इन्हें भागने में मदद करती थी एक बड़ी कीमत लेकर।
कई गरीब परिवारों के पास इतना पैसा नहीं होता था कि हर सदस्य को भगा सके तो बस कुछ लोगों को ही बचाया जा सकता था।
माता-पिता अपने बच्चो को दूर भेजने की कोशिश करते थे।
मेरी एक तिब्बती दोस्त को साढ़े सात साल की उम्र में उसकी पाँच साल की बहन के साथ भेज दिया भारत, दो शेरपाओं के भरोसे। वे भाग्यशाली थी और यहाँ तक कई दिनों की यात्रा (जोकि अक्सर रात के अंधेरे में छुप कर होती थी) के बाद सही-सलामत पहुँच गयी। पर बहुत से बच्चे बेच दिये गये, कुछ के अंग बिके तो कुछ देह-व्यापार में धकेले गये।
हमारे देश ने इंसानियत की एक बड़ी मिसाल दी और करीब डेढ़ लाख शरणार्थियों को लिया। पर एक आश्चर्यजनक बात है, दशकों से रह रहे बहुत से शरणार्थियों ने आज तक भारत की नागरिकता नहीं ली जबकि इस देश में फर्जी कागज बनवाना मुश्किल नहीं है।
वजह- उनकी लड़ाई उनके पहचान की है जोकि नागरिकता लेने के फायदे से ज्यादा बड़ी है उनके लिये। वे शरणार्थी ही रहेंगे। वे तब भी तिब्बत के थे आज भी वहीं के हैं, हालांकि हमारे देश के प्रति कृतज्ञता से भरे। वापस लौटने की उम्मीद लिये। मजनू का टीला कभी बड़ा dumping ground(कचड़े फेंकने की जगह) थी जो उनको दी गयी और आज उन्होंने उसे खूबसूरत बाजार में बदला है। वहाँ जाने में आपको डर नहीं लगता।
इन तिब्बत वालों से मिलिये, इनसे बात कीजिये और हमारे देश के प्रति उनका आदर देखिये। तिब्बती कम्युनिटी जहां भी बसी वहाँ आपको स्वादिष्ट मोमो, हाथों की कारीगरी, ऊनी वस्त्र और दोस्ताना व्यवहार मिलेगा। पारसी भी यहाँ आये और खूब फुले-फले ।
इस देश को शरणार्थियों से समस्या नहीं रही है कभी, समस्या है शरणार्थियों के रवैये से।
ऐसे ही बेचारे शरणार्थी थे मिडल ईस्ट के जिनकी कृपा से जर्मनी में कई बलात्कार हो गये और आज जनाक्रोश हैं वहाँ उनके प्रति। ब्रिटेन वाले भी परेशान हो चुके हैं।
रोहिंग्या का मामला आदर्श या निष्पक्षता का नहीं है बल्कि अपनी सुरक्षा का है। दया की बात ही फालतू है क्योंकि मुझमें ज्यादा दया होगी तो मैं अपने औकात के हिसाब दो-चार-छह अनाथ भूख से मरते बच्चे गोद ले लूँगी। एक सौ बीस करोड़ वाले देश में ये मिलना मुश्किल नहीं है। आपके अंदर भी सच में दया होगा तो आप भी कर लेंगे यही काम।
पर अपना घर सम्भालना ज्यादा जरूरी है हर दयालु के लिये इसीलिये उसे किसी जरूरतमंद के साथ शेयर करने से पहले सौ बार सोचते हैं। बाकी देश के लिये तो सरकार ही है, हमारे घर से सीधा आटा-दाल नहीं ले सकती वह। तो उसके सामने डिमांड रखते रहो, प्रदर्शन करते रहो।
-मेघा मैत्रेय