डॉनल्ड ट्रम्प “पोलिटिकली इनकरेक्ट” है!
जो “पोलिटिकली इनकरेक्ट” होगा, वही कारगर होगा, इस बात को हमें एक नियम की तरह मान लेना चाहिए।
क्योंकि जो “पोलिटिकली करेक्ट” होगा, उसका पूरा समय तो इसी फ़िक्र में निकल जाएगा कि वो “पोलिटिकल करेक्टनेस” को कैसे मेंटेन करे ।
“पोलिटिकल करेक्टनेस” एक कैंसर है। यह “मर्सिनरीज़” को जन्म देती है। “मर्सिनरी” शब्द का अगर हिंदी अनुवाद करें तो वह होगा- “भाड़े का टट्टू”। हमने भारत-देश में ऐसे ही “मर्सिनरी” नेताओं को कई साल तक झेला है! ख़ुशामदी और रीढ़हीन।
डॉनल्ड ट्रम्प लेफ़्ट और लिबरलों की आंख में खटकता है डॉनल्ड ट्रम्प “पोलिटिकली इनकरेक्ट” है ! क्योंकि वो “पोलिटिकल इनकरेक्टनेस” की अति है। जिन राजनीतिक “जार्गन्स” को लिबरल लोग दिन रात सोते जागते जपते रहते हैं, उनकी दो कौड़ी की परवाह डॉनल्ड ट्रम्प नहीं करता! अमेरिका जैसे मुल्क़ में, जो कि वित्तपोषित लिबरल्स का अड्डा है, ऐसे आदमी का प्रेसिडेंट बन जाना वैसे अहर्निश टकरावों को जन्म देगा ही, जिसकी झलक हमें हिंदुस्तान में 16 मई 2014 के बाद से लगातार दिखाई दे रही है।
डॉनल्ड ट्रम्प ने आज अमेरिका की विदेश नीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। अगर वो “पोलिटिकली करेक्ट” होता तो अभी इस्लामिक स्टेट और पाकिस्तान तालिबान को फ़ंडिंग कर रहा होता।
बराक ओबामा हिंदुस्तान आए थे। लिबरल राजनीति के सबसे चमकीले चेहरे। तिस पर अश्वेत। वैसी प्रतीकात्मकता से उदारवादी पूर्वग्रह और निखर जाता है। जैसे कि किसी बहुसंख्यक भीड़ के हाथों मुस्लिम का मारा जाना। तब लिबरलों की बांछें खिल जाती हैं। उन्हें मनचाहा “नैरेटिव” मिल जाता है। बराक ओबामा की काली चमड़ी वैसा ही एक “नैरेटिव” था- “व्हाइट हाउस में ब्लैक।”
तो बराक हुसैन ओबामा साहब हिंदुस्तान आए। बम्बई में छात्रों ने उनसे पूछा कि आप पाकिस्तान पर इतने नरम क्यों हैं? उन्होंने जवाब दिया, क्योंकि एशिया की जियो-पॉलिटिक्स में पाकिस्तान एक बहुत ज़रूरी मुल्क है। ठीक बात। लेकिन पाकिस्तान के भू-राजनीतिक महत्व से यह कहां सिद्ध होता है साहब कि उसकी टेरर-फ़ंडिंग की जाए?
डॉनल्ड ट्रम्प ने वह रसद काट दी!
ट्रम्प बहुत बड़ा “इंटेलेक्चुअल” नहीं है। राजनीति में आपका बहुत “इंटेलेक्चुअल” होना ज़रूरी भी नहीं है। उल्टे इससे तो और बाधाएं उत्पन्न होती हैं, जैसी कि हमारे प्रथम प्रधानमंत्री के साथ उत्पन्न हुई थीं।
राजनीति में व्यापक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाती हैं। एक सच्चा लीडर वही है, जिसमें अपने मुल्क़ की भलाई के लिए “डेस्पेरेशन” हो।
डॉनल्ड ट्रम्प की नज़र में पाकिस्तान की टेरर-फ़ंडिंग का कोई मोल नहीं था। उसने वो सप्लाई काट दी। अफ़गानिस्तान से फ़ौजें तो पहले ही बुला ली गई थीं। इज़रायल जाकर यरूशलम को अधिकृ़त राजधानी का ओहदा दे दिया। रूस को लेकर जी-8 देशों से लड़ लिए। आज नॉर्थ कोरिया से हाथ मिला लिया। सुना है, किम से डी-न्यूक डील पर दस्तख़त भी करवाने वाले हैं। मॉन्यूमेंटल सक्सेस! पोलिटिकल करेक्टनेस सात जन्म में वैसा नहीं कर पाती!
लिबरलों को यह सब पसंद नहीं आने वाला। वे इसमें मीनमेख निकालेंगे। कोई समस्या हल हो जाए, यह उदारवादी चिंतन के मूल में नहीं है। समस्या बनी रहनी चाहिए। “पोलिटिकल करेक्टनेस” का मतलब है समस्या को क़ायम रखना। कैंसर के मरीज़ का इलाज नहीं करना, उल्टे उसे यह बताना कि तुम बहुत सेहतमंद हो। उल्टे कोई उसको बोले कि तुम्हें तो कैंसर है भाई, इलाज नहीं कराया तो मर जाओगे, तो उसी से लड़ लेना! यह लिबरल थ्योरी है।
कम ही लोगों को आज याद होगा कि जब डॉनल्ड ट्रम्प अपना “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” चुनाव अभियान चला रहे थे, तब आज की तारीख़ में दुनिया के सबसे चर्चित, प्रभावशाली और लोकप्रिय मार्क्सवादी दार्शनिक स्लावोई ज़ीज़ेक ने उनकी उम्मीदवारी को अपना समर्थन दिया था। ज़ीज़ेक ख़ुद निहायत पोलिटिकली इनकरेक्ट फ़िलॉस्फ़र है। खरबूज़े ने खरबूज़े को पहचान लिया!
लेकिन एक मार्क्सवादी द्वारा ट्रम्प को सपोर्ट करने में कुछ चौंकाने वाला नहीं था। ज़ीज़ेक ने जिन मानदंडों पर ट्रम्प का समर्थन किया, वे “क्लासिकल कम्युनिस्ट कैनन्स” थे।
दूसरे शब्दों में, आइडियोलॉजिकली स्पीकिंग, उस समय कोई भी सच्चा मार्क्सवादी हिलेरी क्लिंटन के बजाय डॉनल्ड ट्रम्प को ही सपोर्ट करता।
क्यों? क्योंकि हिलेरी क्लिंटन एक ख़तरनाक “स्टेटस-को” का प्रतिनिधित्व करती थीं। वे एक जड़ हो चुके “पोलिटिकल-इकोनॉमिक नेक्सस” का हिस्सा थीं। वे एक सड़ी हुई “पोलिटिकल डायनेस्टी” का भी चेहरा थीं, जिसमें पतिदेव ने पहले आठ साल राज किया, फिर 2012 में बराक ओबामा को चुनाव जिताने में जी-जान लगा दी, और बदले में बीवी की उम्मीदवारी के लिए सपोर्ट मांग लिया। “क्रोनी कैपिटलिज़्म” की तर्ज पर यह “क्रोनी पोलिटिक्स” थी। जबकि अमेरिका को ज़रूरत “रीयलपोलिटिक” की थी।
डॉनल्ड ट्रम्प ने एक “आउटसाइडर” की तरह इस पूरे सिस्टम को डिस्टर्ब कर दिया था। मार्क्सवाद का बुनियादी पूर्वग्रह ही यथास्थिति से विचलन है। कोई भी “स्टेटस कोइस्ट” सही मायनों में मार्क्सवादी नहीं हो सकता। जब बर्नी सेंडर्स ने हिलेरी क्लिंटन की डेमोक्रेटिक दावेदारी का समर्थन किया था तो ट्रम्प ने एक बहुत ईमानदार टिप्पणी की थी। उसने कहा था कि यह उसी तरह से है, जैसे “ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट मूवमेंट” वाले “लेहमैन ब्रदर्स” का समर्थन करें। यह एक भीषण विरोधाभास था कि सेंडर्स जैसे सोशलिस्ट रुझान रखने वाले नेता हिलेरी जैसी “अपॉर्च्यूनिस्ट”, “स्टेटस कोइस्ट”, “कंसेंसस बिल्डर” का समर्थन करते।
लेकिन, डॉनल्ड ट्रम्प चुनाव जीते। अमेरिका में फ़ाशिज़्म का सूत्रपात तो ख़ैर नहीं ही हुआ, जैसा कि अंदेशा जताया जा रहा था। ट्रम्प ने कुछ ऊटपटांग ट्वीट्स ज़रूर किए, लेकिन वो “पोलिटिकल इनकरेक्टनेस” के पैकेज का हिस्सा थे। मतलब की बात यह है कि ट्रम्प ने अमेरिकी मुख्यधारा के “पोलिटिकल डिस्कोर्स” में निहित समझौतावादी प्रवृत्तियों का ख़ात्मा कर दिया और उसमें बुनियादी सवालों और चिंताओं की ओर लौटने की प्रवृत्ति विकसित की।
अगर डॉनल्ड ट्रम्प ने नॉर्थ कोरिया को “डी-न्यूक” कर दिया तो प्रेसिडेंसी के दूसरे टर्म के लिए उनका दावा पुख़्ता हो जाएगा। कौन जाने, “नोबेल पीस प्राइज़” के लिए भी उनके अवसर उजले हो जाएं, जो आतंकवाद के पोषक बराक “हुसैन” ओबामा को भूलवश दे दिया गया था!
-सुशोभित सिंह सक्तावत