यहीं पर लाज़िम यहीं के मुस्लिम
द्रविड़ों ने नहीं मांगा “द्रविड़-प्रदेश”, अनार्यों ने नहीं मांगा “अनार्यवृत”। पूर्वोत्तर के लोगों से पूछा जाता रहा कि आप कभी “इंडिया” आए हैं और वे मुस्कराकर कहते रहे कि हम “इंडिया” के ही तो हैं, उन्होंने कभी असंतोष से नहीं कहा कि हमें चाहिए सात राज्यों का एक पृथक “पूर्वांचल परिसंघ”!
सिखों ने मांगा था “खालिस्तान”, दस साल सुलगे, शांत हुए, और फिर लतीफ़ों और लोहड़ियों का हिस्सा बनकर रह गए। आज पक्के राष्ट्रभक्त !
मराठों ने राष्ट्र के भीतर बना लिया “महाराष्ट्र”, लेकिन रहे राष्ट्र के भीतर ही।
आदिवासी जंगलों में और भीतर धंस गए, नहीं मांगा “वनांचल”। और दलित भी अधिक से अधिक आरक्षण की मांग करके रुक गए, कभी साहस नहीं कर पाए कि मांग लें अपने लिए पृथक से एक “भीमलैंड”।
फ़िरंगियों को हमने खदेड़ दिया! वे भागे : पीछे छोड़कर अपनी इमारतें, रेल की पटरियां, “वेस्टमिंस्टर” शैली का लोकतंत्र और कोट-टाई-पतलून!
भारत की नियति पर सबसे अनैतिक दावा जिनका था, भारत की चेतना पर सबसे गहरे ज़ख़्म जिन्होंने दिए थे, केवल और केवल उन मुसलमानों ने ही मांगा अपने लिए एक “पाकिस्तान”, और उन्हें मिल भी गया!
क्या भारत पर मुसलमानों का हक़ दलितों, आदिवासियों, द्रविड़ों, अनार्यों से अधिक था? या अलगाव की शिद्दत और चाहत ही उनमें बाक़ियों से ज़्यादा थी?
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सुना है सड़कों पर आज हुजूम है।
मेरी आंखें मुझे धोखा दे रही हैं या शायद मुझको कोई भरम हो रहा है, लेकिन मुझे बार-बार यह लग रहा है कि हुजूम तो है लेकिन यह साल 2017 नहीं 1947 है और हुजूम में शामिल करोड़ों-करोड़ मुसलमान यह नारा बुलंद कर रहे हैं :
“नहीं जाएंगे नहीं जाएंगे! यहीं रहेंगे यहीं मरेंगे!! यही लड़े हैं यहीं बढ़े हैं! यहीं के आलिम यहीं के हाकिम यहीं के मुस्लिम! गंगा जमनी ज़िंदाबाद, चैनो अमनी ज़िंदाबाद! नहीं चाहिए पाकिस्तान, अपना प्यारा हिंदोस्तान! यहीं रहेंगे यहीं गड़ेंगे! यहीं पर लाज़िम यहीं के मुस्लिम!”
नहीं, ये शायद भरम ही होगा, क्योंकि वैसा कुछ नहीं हुआ था!
वैसा आज तलक नहीं हुआ! यह सब मेरी “ख़ामख़याली” है। और हद्द तो यह कि यह “तराना” भी किसी ने नहीं रचा, यह तो मैं ख़ुद ही ख़ुद को गाकर सुना रहा।
वो किसने कहा था : “ये गुलसितां हमारा”? और फिर सैंतालीस के बाद उन्होंने चुपचाप बदल लिया अपना “गुलसितां”!
जिन्ना बहादुर ने कहा, “चलो।” और देश के मुसलमां मासूमों की तरह उठकर चल दिए!
देखते रहे मराठे, गुजराती, अवधी, भोजपुरी, मद्रासी, कोंकणी। सब यहीं रहे, मुसलमां चले गए। और इसके बावजूद आप कहते हैं कि मुसलमानों के प्रति आज यह दुर्भावना किसलिए?
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आपको आज “हिंदू राष्ट्र” शब्द सुनकर शर्म आती है। ये शर्म सत्तर साल पहले दो-दो “इस्लामिक” राष्ट्रों के निर्माण पर क्यों नहीं आई थी?
हमारे मुल्क के हुक्मरानों ने कुछ इस अंदाज़ में पाकिस्तान के निर्माण की अनुमति दी, जैसे कि यह नियत हो, अवश्यंभावी हो, अपरिहार्य हो। जैसे कि नियति से यह भेंट अटल हो। इसको रोका ना जा सकता हो। ना हाकिम बोले, ना अवाम ने ही आगे बढ़कर कहा : “यहीं रहेंगे यहीं मरेंगे!”
एक-दो नहीं गए थे, करोड़ों-करोड़ गए थे। मजबूरी में नहीं, पूरे मन से गए थे। बेख़ुदी में नहीं, होशो-हवास में।
जब बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से होय?
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धर्म के आधार पर देश टूटा फिर भी “धर्मनिरपेक्षता”!
संविधान के “प्री-एम्बल” में लिख देने भर से नहीं आ जाती धर्मनिरपेक्षता। “इफ़्तार” पार्टी करने, गले मिलने, फ़ेसबुक पर “ईद मुबारक़” लिखने से नहीं आती। “धर्मनिरपेक्षता” दिखनी चाहिए, समाज में, इतिहास में, नीयत में, फ़ितरत में।
सन् सैंतालीस में जब “मुस्लिम लीग” के लीडरान कह रहे थे कि हम “बनिया-बामन राज” में नहीं रहेंगे, तब इसके विरोध में दिखना चाहिए था भाईचारे का ऐसा बुलंद नारा कि जिन्ना शर्मसार होकर रह जाते। वो नारा कहां है?
और, बंटवारे के बाद भी मुसीबत कहां मिटी? आप कहते कि देश में एक क़ानून होगा और सब बराबर होंगे, आपने नहीं कहा। आप पत्थर फेंकने सड़कों पर उतरे, लेकिन कभी जमघट बनाकर नहीं कहा कि क़ुरान बाद में संविधान पहले, इस्लाम बाद में हिंदुस्तान पहले। आतंकी हमलों पर आपकी आंख में नहीं दिखी शर्म, उल्टे अगर-मगर के पंचम-मध्यम में देते रहे दलीलें।
चाहे जितने जुलूस निकाल लीजिए, चाहे जितने हुजूम बना लीजिए। इन तमाम जुलूसों और हुजूमों के “पोलिटिकल नैरेटिव” है। सरकार गिरवा दीजिए, उससे क्या होगा? हिंदुस्तान की मुसीबतें “पोलिटिकल” नहीं हैं, “कल्चरल” हैं।
हिंदुस्तान ज़ख़्मी है और मुस्कराने का दिखावा कर रहा है। हिंदुस्तान बंटा हुआ है और मुबारक़बाद का तमाशा कर रहा है। और हिंदुस्तान ख़ुद से यह तल्ख़ सवाल नहीं पूछ रहा कि जब भाईचारा था तो बंटवारा कैसे हुआ?
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भारत की नियति अंधकार से भरी है, यह बात मैं उसी तरह के उदास मन से बोल रहा हूं, जैसे किसी जहाज़ का कप्तान अपने मुसाफ़िरों को इत्तेला देता है कि हम डूब रहे हैं, अपने अपने ईश्वरों को याद कर लीजिए।
मेरे ज़ेहन में रंचमात्र भी शुब्हा नहीं कि शर्म एक ज़िम्मेदारी होती है और इस ज़िम्मेदारी का निबाह हिंदुस्तान के मुसलमानों को करना है। उन्हें हर रोज़ भरोसा जीतने का उद्यम करना है, उतने ही जतन से, जैसे रक्खे जाते हैं रोज़े। वही रमज़ान होगी, वही ईद होगी। उसी की दी जाएगी मुबारक़बाद।
अपने-अपने घरों से निकलकर सड़कों पर आइए और इस्लाम के बजाय हिंदुस्तान में अपना भरोसा जताइए। हिंदुस्तान तो अतीत का सबकुछ भुला देने के लिए तैयार ही बैठा है। आमीन।
–सुशोभित सक्तावत
(विश्व सिनेमा, साहित्य, दर्शन और कला के विविध आयामों पर सुशोभित की गहरी रुचि है और पकड़ है। वे नई दुनिया इंदौर में फीचर संपादक के पद पर कार्यरत् हैं।)