“इंडिया” जो कि “भारत” है !
रामचंद्र गुहा की किताब “इंडिया आफ़्टर गांधी” यूं तो स्वतंत्र भारत का राजनीतिक इतिहास है, लेकिन वह एक रूपक भी है. यह रूपक है : “इंडिया : द अननेचरल नेशन.” किताब में कोई भी सवाल हो : बंटवारे का मसला, रियासतों के विलय का मुद्दा, संविधान सभा में कॉमन सिविल कोड या राजभाषा पर बहस, प्रांतीय तक़रारें, कश्मीर की समस्या : ये तमाम इस एक रूपक के आलोक में विवेचित हैं.
ऐसा हुआ कि सन् 1888 में कैम्ब्रिज में सर जॉन स्ट्रेची नाम का एक व्यक्ति व्याख्यान दे रहा था. स्ट्रेची ने भारत में ब्रिटिश राज की जड़ें जमाने में काफ़ी मदद की थी और कैम्ब्रिज में वह अपने अनुभवों को साझा कर रहा था.
स्ट्रेची का कहना था कि हिंदुस्तान एक सुविधाजनक नाम भर था, वस्तुत: हिंदुस्तान कहीं था नहीं. जो था, वह एक विशालकाय भूखंड था, जिसमें “कई सारे राष्ट्र” एक साथ रह रहे थे. स्ट्रेची के मुताबिक़ “पंजाब और बंगाल की तुलना में स्कॉटलैंड और स्पेन एक-दूसरे के ज़्यादह क़रीब थे.”
बात ग़लत न थी.
लेकिन स्ट्रेची ने अपनी किताब में सबसे मज़ेदार जो बात कही, वो यह है कि हो सकता है, यूरोप के तमाम मुल्कों की जगह संयुक्त यूरोपियन महासंघ जैसा कुछ निर्मित हो जाए (जैसा कि आज सवा सौ साल बाद सचमुच हो गया है : “यूरोपियन यूनियन”), लेकिन इंडिया जैसे किसी एक मुल्क के घटित होने की कोई संभावना नहीं |
इसके पूरे 59 साल बाद जब 1947 में भारतीय गणराज्य का गठन हुआ तो कैम्ब्रिज में बहुतों को लगा होगा कि स्ट्रेची महोदय ग़लत साबित हुए, क्योंकि इंडिया जैसा एक मुल्क सच में बन गया है. लेकिन क्या वाक़ई वह “एक” मुल्क था. क्या वाक़ई एकल राष्ट्रीयता जैसी कोई चीज़ भारत की चेतना में है ?
भारत में 22 अधिकृत भाषाएं हैं, तीन हज़ार से ज़्यादा जातियां हैं, हर प्रांत की अपनी कल्चर. हर लिहाज़ से भीषण विषमताएं. फिर भी नक़्शे पर आज एक भारत है तो, जिसे हम भारत कहते हैं. कैसे है, यह समझना कठिन है.
हमारे संविधान की पहली ही पंक्ति है : “इंडिया, दैट इज़ भारत, शैल बी अ यूनियन ऑफ़ स्टेट्स.”
“इंडिया दैट इज़ भारत” : वाह, क्या परिभाषा है ! इंडिया जो कि भारत है! लेकिन इंडिया क्या है और भारत क्या है, यह गुत्थी नहीं सुलझती. इस इंडिया और इस भारत को कहां खोजें ?
“आइडिया ऑफ़ इंडिया”, जो कि एक नेहरूवियन धारणा है, चंद गणतांत्रिक परिभाषाओं में भारत के विचार को बांधने की भरसक कोशिश करती है : “प्लुरल”, “इनक्लूसिव”, “टॉलरेंट”, “सेकुलर”, “डेमोक्रेटिक”, “नेशन-स्टेट”. अंग्रेज़ी के अख़बारों में आज जो एडिटोरियल लिखे जाते हैं, उन्होंने Bharat की इन परिभाषाओं को अंतिम सत्य की तरह स्वीकार कर लिया है. उनका विमर्श ही यह मानने से शुरू होता है कि भारत प्लुरल, इनक्लूसिव, टॉलरेंट, सेकुलर, डेमोक्रेटिक, नेशन-स्टेट है.
काफ़्का ने कहा था कि एक बार आपने किसी ग़लत दिशासूचक पर पूरा भरोसा कर लिया तो फिर आप कभी सही रास्ते पर नहीं चल सकते.
26 जनवरी 1950 को एक संवैधानिक “जादू की छड़ी” से एक “राष्ट्र-राज्य” बना था. संविधान सभा ने वह जादू की छड़ी घुमाई और सहसा भारत का जन्म हुआ! ” India That Is Bharat “.
लेकिन उसके पहले क्या था?
एक उपनिवेश, एक कॉलोनी ? और उसके पहले, एक कुचली हुई सभ्यता, एक सल्तनत ? उसके पहले, हिंदू-द्रविड़ जनपदों का एक जमा-जोड़ ? क्या अशोक के अखिल भारतीय साम्राज्य में ही भारत भारत की तरह एक था ? आर्य यहां कैसे आए ? या वे यहां कैसे विकसे और पनपे ? आर्यों की भाषा, उनके देवता हमें विरासत में कैसे मिले ? हमारे पर्व, तीर्थ, रीति, मिथक, काव्य कैसे उपजे ? भारत को चंद परिभाषाओं में कैसे बांधें ?
अमरीका होना बहुत आसान है, उसके पास मुड़कर देखने के लिए कोई बीता हुआ कल नहीं (बीकानेर की कई हवेलियां अमरीका से भी पुरानी हैं!). ब्रिटेन होना भी कठिन नहीं. लेकिन भारत अपनी पहचान किस अतीत में तलाशे ? उससे विलग किस आज में ?
दुनिया के तमाम देशों की एक राष्ट्रीय पहचान है, एक भाषा, एक बहुसंख्यक नस्ल, और कल्चर तो पूरे पूरे महाद्वीपों की यक़सां है. भारत से जब पाकिस्तान टूटा तो उसकी फिर वही एकल पहचान थी : मुस्लिम बहुल इस्लामिक स्टेट. बंगभूमि टूटी, टूटकर एकल पहचान वाला बांग्लादेश बना. खालिस्तान बनता तो वैसा ही होता. द्रविड़ भाषाओं ने अगर अपना पृथक राष्ट्र बनाया तो वह वैसा ही एक द्रविड़ देश होगा. पूर्वोत्तर टूटा तो एक पूर्वदेश होगा.
“ईशावास्योपनिषद्” कहता है : “पूर्ण में से पूर्ण को निकाल दें तो भी पूर्ण शेष रह जाएगा.” मैं कहता हूं : “भारत में से भारत को निकाल दें तो भी भारत शेष रह जाएगा.”
तो फिर भारत क्या है ? या कहीं भारत है भी ?
कहते हैं क्रिकेट भारत को एक कर देता है, बशर्ते पाकिस्तान से मैच ना चल रहा हो. पाकिस्तान से मैच के दौरान इस टूटे हुए देश की विडंबनाएं उभरकर दिखती हैं. मेरे प्यारे भारत, तुम्हें बाहरी दुश्मनों की दरक़ार भला क्यूँ हो.
गांधी, रबींद्रनाथ, नेहरू, आंबेडकर, तिलक, सावरकर ने अपने अपने भारत की कल्पना की है, कोई भी कल्पना पूर्ण नहीं. कोई कहता है भारत गांवों में बसता है, जबकि ये गांव ख़ुद टूटे हुए हैं, अलग अलग कुओं से पानी पीते ! ठाकुरटोला अलग, चमारपट्टी अलग!
कोई कहता है भारत एक राष्ट्रीय भावना से बढ़कर एक राष्ट्रीय चरित्र है, और मध्यप्रदेश के क़स्बों की गोधूलि में अपना जीवन बिताने के बाद जब उस दिन मैंने दिल्ली की चौड़ी सड़कों पर भी मेरे क़स्बे की तरह मवेशियों को पसरे हुए देखा तो एकबारगी मेरा मन हुआ कि उस बात को मान ही लूं. लेकिन “राष्ट्रीय फ़ितरत” का कोई एक “संविधान” कैसे बनाएं!
वीएस नायपॉल ने भारत की तीन परिभाषाएं दी हैं :
“अंधेरे का देश”, “एक ज़ख़्मी सभ्यता”, “सहस्त्रों विप्लवों की धरती”. तीनों ही सही, किंतु तीनों अर्धसत्य!
राष्ट्रों के उद्भव, विकास और पतन पर डेरन एस्मोगलु और जेम्स रॉबिन्सन की चर्चित किताब है : “व्हाय नेशन्स फ़ेल.” क्या भारत पर कोई ऐसी किताब है, जो कहती हो : “हाऊ इंडिया मैनेजेस टु एग्ज़िस्ट ?”
सवाल यही है कि : भारत एक “अस्वाभाविक राष्ट्र” है या फिर वह “एक राष्ट्ररूप” में एक “अस्वाभाविक अवधारणा” है ? भारत का वास्तविक विचार क्या है ? और अगर भारत एक चेतना है, तो उसे क्या एक सूत्र में बांधता है?
जॉन स्ट्रेची के अंदेशे तो ग़लत साबित हुए, लेकिन क्या ऐसा भारत द्वारा एक राष्ट्र रूप को अपने पर आरोपित करने के बावजूद हुआ है : इन स्पाइट ऑफ़ दैट ?
1947 में हिंदुस्तान का बंटवारा हिंदुस्तान की ह@या थी. वैसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए था.
और अगर 1947 में हिंदुस्तान यह ज़िद कर लेता कि हम टूटेंगे तो तीन टुकड़ों में टूटेंगे : “हिंदू राष्ट्र”, “इस्लामिक स्टेट” और “सेकुलर इंडिया”, तो वह बराबर का हिसाब होता, और चूंकि वैसी बराबरी हिंदुस्तान में कहीं भी नहीं है इसलिए शायद हिंदुस्तान इसी बहाने टूटने से बच जाता!
बशर्ते किसी हिंदुस्तान का सच में कोई वजूद हो!
-शुशोभित सक्तावत
(विश्व सिनेमा, साहित्य, दर्शन और कला के विविध आयामों पर सुशोभित की गहरी रुचि है और पकड़ है। वे नई दुनिया इंदौर में फीचर संपादक के पद पर कार्यरत् हैं।