आदरणीय प्रधानमंत्री महोदय,
मैं एक डरा सहमा सा बिहारी, सहमते सहमते ये पत्र लिखने की हिम्मत जुटा पा रहा हूँ। मैं एक ऐसे शहर में रहता हूँ, जहाँ शराब पीने पर उतनी ही सजा है जितनी कि किसी के क़त्ल की कोशिश पर होती है। आशा है आप समझ पायेंगे कि “टके सेर भाजी, टके सेर खाजा” के राज्य में रहना कितना डरावना होता होगा।
इतनी सी बात काफी नहीं थी तो मैंने खुला पत्र लिख डाला है। हाल के दौर में बिहार के ही स्वयंभू, जनता के पत्रकार, रविश “कौन जात हो” कुमार के खुला पत्र लिखने के बाद से आपको खुला पत्र लिखने वालों की सेहत कुछ ठीक नहीं रहती। बताता चलूँ कि वो पहले से डरे हुए थे, मैं अब डर रहा हूँ। ऐसा तब है जब बुद्धिजीवियों जैसा मुझे फासीवाद के चुपके से घुस आने की आहट भी सुनाई नहीं देती।
वाबजूद इसके कि मैं बिहारी हूँ, मैं बाकी भारत के नागरिकों से मिलता जुलता सा ही हूँ। बाकी सबकी तरह मैं भी मन की बात आम तौर पर सिर्फ सुन लेता हूँ, कह नहीं पाता। अगर इजाजत और मौका मिल जाये तो कभी कभी मैं मतदान कर आता हूँ, शायद उस से मेरी मंशा कुछ पता चलती हो। सरकार की सुनने के लिए जरूर मैं आपके भाषणों का इन्तजार करता हूँ। बिलकुल वैसे ही जैसे मार्च 2014 में पुर्णिया की “हुंकार रैली” में किया था।
वो चुनावों से ठीक पहले का दौर था और आपने धर्मनिरपेक्षता की परंपरा का निर्वाह भी किया था। आपने सच्चर कमिटी की रिपोर्ट का बखान भी किया था। आपने बताया था कि गुजरात में शहरी मुसलमानों में 24% गरीबी में हैं और बिहार में 45%, ग्रामीण क्षेत्रों में बिहार में जहाँ ये 38% थी वहीँ गुजरात के गावों में सिर्फ 7%। शिक्षा का आंकड़ा तो और भी चौंकाने वाला था।
गुजरात में आपने बताया था कि 74% मुस्लिम शिक्षित हैं, तब बिहार में ये आंकड़ा मुश्किल से 42% पर था। नहीं, मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता शिक्षा के ये आंकड़े रातों रात बदल जाने चाहिए, सत्तर साल के गड्ढे साढ़े तीन साल में नहीं भरते, फिर भी जिन उम्मीदों पर इतनी लोकसभा सीटें दी गई थी, उस सिलसिले में कुछ कदम तो बढ़ाए ही गए होंगे ?
मुझे आशा थी कि आप बिहार आये हैं और एक यूनिवर्सिटी में ही आये हैं तो शायद शिक्षा व्यवस्था पर कुछ बोलेंगे। जी हाँ, मुझे टू मिनट मैग्गी का अच्छी तरह पता है, बस मैं उसका उल्टा, बीरबल की खिचड़ी, कहकर जवाब नहीं देना चाहता। जिन चीज़ों की बातें मैं कर रहा हूँ, वो आपने राज्य के चुनावों के लिए नहीं लोकसभा चुनावों के लिए की थी। जी हाँ, उनका विडियो भी है और यू ट्यूब पर आपके उन्हीं समर्थकों का अपलोड किया हुआ है जो शायद कूदते हुए “सबूत दिखाओ जी” कहने आयेंगे।
उनमें से कुछ जरूर शौक़ीन मिजाज़ के भी होंगे, उन्हें स्टेशन की दीवारों पर लिखा नूरानी और हाशमी दवाखाने का पता भी मालूम है, वो शायद मुझे भी बताएँगे। कहने में अच्छा तो नहीं लगता मगर फिर मुझे बताना पड़ेगा कि वो जो जल्दी सब कुछ हो जाने का रोग, जो पता नहीं क्यों सिर्फ भारत में होता है, उसका ठीक उल्टा भी कुछ बिमारियों में होता है, जब कोशिश तो काफी की जाती है, मगर कुछ हो नहीं पाता।
खैर वो तो जब होगा तब, फ़िलहाल शिक्षा पर ही रुकते हैं और याद करते हैं कि आपने शहजादे जी से उस वक्त ‘आकाश’ टेबलेट का भी पूछा था कि आएगा तब तो लोगों को मिलेगा ? उसी वक्त आपने बिहार में सिर्फ दो प्रतिशत विद्यालयों में कंप्यूटर होने की बात भी की थी। मेरी आशा थी कि आप बताएँगे कि वो आंकड़ा अब 2% से बढ़कर कहाँ पहुँच गया है ?
उसी भाषण के दौरान उसी दौर में हुई मिडडे मील से बच्चों की मौत का जिक्र भी छिड़ा था। दुर्घटनाओं से आगे बढ़ने का मानवीय स्वभाव में हम बिहारी भी उस घटना में हुई मौतों की गिनती भूल गए हैं। उस घटना में प्राध्यापिका से लेकर बावर्ची तक कौन कौन जिम्मेदार थे और किन्हें सजा मिली वो भी हम पूछना नहीं चाहते। मैं आपका ध्यान सरकारी तंत्र की मिलीभगत से बाकायदा नियोजित की गई हत्याओं की तरफ ले जाना चाहूँगा।
ये हत्या बिहार बोर्ड में पढ़े छात्रों की की गई थी। मुझे ये समझना था कि जिन्हें टॉप करने के इल्जाम में जेल में डाला गया, वो तो अब कैदी-सजायाफ्ता मुजरिम हैं। सालों बाद वो पता नहीं कब छूट कर निकलेंगे, उन्होंने इस उम्र में लाखों की रिश्वत देने लायक पैसे और जानपहचान जुटाई कैसे ? मगर आप उन हजारों फेल कर गए, या कर दिए गए छात्रों के बारे में भी नहीं बोले जिन्हें बिहार की शिक्षा व्यवस्था चबा चबा कर साल दर साल खाती जाती है।
तीन साल में हर बार मुझे परीक्षा भवन के बाहर नंगा करके बिहार बोर्ड के लिए होती तलाशी तो दिखी, सी.बी.एस.इ. जैसों के लिए होती नहीं दिखी। ये भेदभाव बिहार के ही छात्रों के दो वर्गों से बिहार में ही होता अगर आपको नहीं दिखता तो शायद आपको एक बार अपना चश्मा पोंछ लेना चाहिए। हो सकता है उसपर सत्ता की मलाई लग गई हो।
बाकी चीज़ें जो नजर ना आई हों तो आप तो पटना यूनिवर्सिटी ही आये थे। ये वही कॉलेज है जिसके आन्दोलनकारी छात्रों का नेतृत्व एक बार जे.पी. कर रहे थे। पुलिस के लाठी चार्ज से जे.पी. को बचाते नानाजी देशमुख का हाथ तभी टूटा था। पिछले दस वर्षों में कब इसमें स्नातक की परीक्षाएं समय पर हुई हैं वही पूछ लेते तो मेरा काम हो जाता। किस साल समय पर स्नातक के कौन से वर्ष की परीक्षा हुई है ? पिछले दो दशक में बिहार से कोई भी छात्र तीन साल में स्नातक नहीं हुआ।
एक भी यूनिवर्सिटी समय पर परीक्षा नहीं लेती और फिर भी सेण्टर से आपकी यू.जी.सी. और अन्य संस्थाएं कुछ भी नहीं करतीं। अफ़सोस कि आपने वो देखने की जहमत भी नहीं उठाई। सोचने लायक ये भी है कि आखिर एक शासक को अच्छा और एक को बुरा किस आधार पर माना जाता है ? लोक लुभावन वादे, सौ फीट ऊँची मूर्तियाँ किसे याद रह जाती हैं ? क्यों आखिर चर्चिल वो ब्रिटिश प्रधानमंत्री नहीं कहलाना चाहता था जिसने भारत को खो दिया ?
क्या एक गज जमीन पर आगे बढ़ना इतना महत्वपूर्ण होता है। शायद होता होगा, क्योंकि कांग्रेस समर्थकों की भीड़ के शोर के बिना भी मुझे इंदिरा कहने पर ७१ और बांग्लादेश याद आता है। होता होगा, क्योंकि जिन्ना कहने पर इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ पाकिस्तान पैदा करने वाला याद आता है। बेशक होता होगा क्योंकि गाँधी और नेहरु कहने पर कश्मीर के लुटे हिस्से और बंटवारा याद आता है। आप और आपके समर्थक जब नहीं होंगे तो किस चीज़ के लिए याद किये जाना चाहेंगे आप ? जमीन एक इंच बढ़ी नहीं, वादों का क्या हुआ मुझे तो पता नहीं !
मेरे ये सवाल कोई पंद्रह लाख के सवाल भी नहीं थे। ये सब वो है जो लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आपने पूछा था। आपने दस मार्च को सप्ताह शुरू होने पर सोमवार को पूछा, मैं बस एक शनिवार को वही दोहरा रहा हूँ। जैसा की पहले भी बताया मैं बिहार के एक शहर में रहता हूँ, जिसे शायद क़स्बा कहना ज्यादा सही होगा। यहाँ हर साल जब बारिश होती है तो सड़कों पर पानी भी जमा हो जाता है। मेरी छाता लेकर निकलने की, और जीन्स समेटकर लौटने की भी आदत है।
बाकी जब जवाब नहीं आते तो हम भी मान लेते हैं कि गरज के साथ जुमलों की बौछार आई थे। नालियों में बहते “गरीबी हटाओ” के वादे के साथ हम और कुछ अधूरे वादों की कीचड़ से पांव बचाते घर लौटते हैं।
आपके ही देश का,
-आनंद कुमार
(लेखक चर्चित ब्लॉगर है )