मनुस्मृति
कोई भी समाज चाहे किसी भी अवस्था में हो ,उसपर राजनीति और धर्म इन दोनों का प्रभाव पड़ता है ,जिससे समाज संचालित होता है ,चाहे वो कबीलायी समाज हो,जनपद,महाजनपद का युग हो ,राजतंत्र हो या फिर लोकतंत्र .
लोकतंत्र में धर्म का प्रभाव तुलनात्मक रूप से कम रहता है और कम होना भी चाहिये ,किन्तु भारत जैसे देश में धर्म महज धर्म ना होकर सदियों से चली आ रही सभ्यता-संस्कृति का एक सतत प्रवाह है,सो धर्म का प्रभाव राजनीति पर कुछ हद तक मैं तर्कसंगत समझता हूँ, चाहे व्यवस्था लोकतांत्रिक ही क्यों ना हो !
राजतंत्र के कई स्वरूप हो सकते हैं ,वैसे ही निरंकुशता के भी .
अगर आर्यावर्त की बात की जाये तो मैं गौरवान्वित होता हूँ अतीत को पढ़कर ,अपनी स्मृतियों को जानकर कि इसने प्रारम्भ से ही ,जब कबीलायी समाज था ,एक बेहतर सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था को देने का प्रयत्न किया.कई सौ वर्षों तक यह वैदिक श्लोकों (सामाजिक व्यवस्था में उपबन्ध) के नियमों से संचालित होता रहा ,किन्तु उस समय समाज छोटे-छोटे समूहों में विभाजित था ,शनैः-२ यह कबीले से जन,जन से जनपद और जनपद से महाजनपद की ओर बढ़ता चला गया.राजतंत्र भले ही निरंकुश प्रवृत्ति का था,किन्तु धर्म का प्रभाव भी था इसपर और दबाव भी ,मतलब धर्मसम्मत ना होने पर राजा भी राजा नहीं रह सकता ,धीरे-धीरे नियम कठोर हुये और राजा मजबूत,किन्तु धर्म प्रभावहीन नहीं हुआ ,यह आर्यावर्त के सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का अभूतपूर्व उदाहरण है.
किसी भी समाज और व्यवस्था को चलाने हेतु नियमों की आवश्यकता होती है ,नियमों के संहिताकरण की आवश्यकता होती है ,समयानुरूप व परिस्थिति के अनुरूप उसमें संशोधन होते हैं ,जिसका सनातनी समाज प्रारम्भ से ही एक बेहतरीन उदाहरण तमाम विकल्पों के साथ प्रस्तुत करता आया है.
वैदिक युग में व्यक्ति धर्म की मर्यादाओं से बंधा हुआ था ,जो समाज को संचालित कर रही थीं ,किन्तु स्मृति काल में मानव को लौकिक मर्यादाओं से बांधा गया .मतलब कि लौकिक नियमों का संहिताकरण हुआ,अपराध व दण्ड के स्वरूप-प्रकार निर्धारित किये गये.
जैसा कि मनुस्मृति के साथ-साथ समकालीन बौद्ध साहित्य या अन्य वैदिक साहित्यों के तुलनात्मक समीक्षण से स्पष्ट है कि इसकी रचना किसी एक व्यक्ति ने ना कर ,अलग-अलग लोगों के समूह ने किया व मनु को समर्पित किया ,कई टीकाओं को बाद में जोड़ा गया व कई उपबन्ध निकाले गये.
ध्यातव्य हो कि समाज कर्मप्रधान से जन्मप्रधान हो चुका था ,जाति-उपजाति में विभक्त समाज नियमों के प्रति कठोर व एकतरफा भी था ,किन्तु अगर यूरोपीय सामंतवाद से इसकी तुलना की जाय तो कुछ वामपंथी इतिहासकार शूद्रों की दशा को दास प्रथा से भी बदतर मानते हैं ,मैं जन्मना व्यवस्था का हितैषी नहीं किन्तु यह मिथ्या व अनर्गल आरोप के अतिरिक्त भी कुछ नहीं.
मनुस्मृति समकालीन समाज का नियम है,विधान है ,वह जो उस व्यवस्था के अनुरूप परिस्थितियों के हिसाब से गढ़ा गया था .नियम हमेशा समकालीन समाज के तर्कसंगत होते हैं ,और निरंकुश व्यवस्था में तो शत प्रतिशत .किन्तु इस व्यवस्था की विशेषता रही कि यह धर्म के प्रभाव को लिये था ना कि किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत दर्शन पर केंद्रित था.
धर्म जो सदियों में परिवर्तित होकर विकसित होता है ,जो परिस्थिति के अनुरूप प्रतिमानों को बदलता है ,गढ़ता है.
आज के समाज में कुछ विकसित बुद्धिजीवियों और स्वघोषित मूलनिवासी (इनके हिसाब से बन्दर के समय से यही यहां होंगे) जब तर्क गढ़ते हैं तो मनुस्मृति की खूब आलोचना करते हैं ,फाड़ते हैं,जलाते हैं.
वैसे मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इनमें से अधिकांशतः ने मनुस्मृति कभी नहीं पढ़ी होगी ,पढ़ी नहीं होगी क्योंकि पूर्वनिर्मित मानसिकता के अनुरूप यह अछूत मानी जाती है,मतलब इसे जलाना किसी महान कर्तव्य का निर्वाह है,जिसके बाद आप सीधे ही बुद्धिजीवी संवर्ग में मूलनिवासी अनार्य माने जाते हैं (कम से कम फेसबुक पर तो गारंटी है इसकी ).
एक उदाहरण देता हूँ ,सती प्रथा का प्राचीनतम साक्ष्य एरण अभिलेख देता है ,मतलब यह व्यवस्था वैदिक साहित्यों के अनुरूप नहीं थी ,किसी विशेष परिस्थिति में यह चली और एक समय के बाद परम्परा बन गयी .राजा राम मोहन राय जब इसके विरोध में खड़े हुये तो कई लोगों ने बेंटिक को इसके पक्ष में तर्क दिये, भारतीय समाज भी इसके उन्मूलन को तैयार ना था ,लेकिन आज यह प्रथा सिर्फ और सिर्फ पढ़ी जाती है .
तो क्या आप इसके विरोध में अभिलेखों को तोड़ देंगे या उसे जूते मारेंगे?
अंग्रेजों ने भारत को खूब लूटा ,अत्याचार किया तो इसके बदले में जो अभी अंग्रेजी पर्यटक आ रहे हैं ,उसे जलायेंगे या मारेंगे ? यह सोचकर कि उसके परदादाओं ने हमारे उपर अत्याचार किये.
अगर 2017 का यह समाज और यही सभ्यता 4017 तक चली तो क्या यही नियम-कानून-परम्पराएं रहेंगी या बदलाव होंगे ?
जरा सोचिये!2000 वर्ष के बाद का समाज इन नियमों को किस परिप्रेक्ष्य में देखेगा.यह हमारी सीमा है कि हम 2000 वर्ष आगे के समाज के अनुरूप ना तो सोच सकते हैं और ना ही खुद को बदल सकते हैं ,क्योंकि कोई भी नियम परिस्थिति के अनुरूप ही तर्कसंगत हो सकता है .तो क्या 4017 में हमारे समाज को हमारी स्मृतियों-नियमों-संहिताओं को जूते मारने का ,थूकने का,जलाने का अधिकार मिल जाता है ?या आप उसे स्वयं कितना तर्कसंगत मानते हैं?
यदि आपका उत्तर हां है तो मुझे आपकी मानसिक स्थिति और संतुलन पर सन्देह है.
मनुस्मृति हजारों वर्ष पूर्व के समाज के लौकिक नियमों की संहिता है ,वह हमारे अतीत की धरोहर है जिससे हम अपने समकालीन समाज की विधियों-व्यवस्थाओं से अवगत होते हैं .जब भी उसका मूल्यांकन होगा तो उसे उसी समाज के अनुरूप ही करना होगा ,अगर आप स्वयं को 2017 में रखकर सोचेंगे तो उसके बहुत से नियम अमानवीय लगेंगे आपको ,क्योंकि वह उस युग के परिस्थिति व व्यवस्था की विधि है ना कि 2017 की.
सम्भव हो कि आप उग्र हों,व्यग्र हों तो क्या आपको सिर्फ इसलिये उसे जलाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है ,वो भी 2017 में?
सनद रहे!वह साहित्य ना सिर्फ हमारे धर्म-संस्कृति का अपितु इतिहास की दृष्टि से भी एक अमूल्य धरोहर है .आवश्यकता उसे पढ़कर उस युग की विधि को समझने की है,ना कि एक व्यक्ति ने मनुस्मृति को फाड़ा और आप भी उसके पदचिह्नों पर चलकर महापुरुष बन गये.
सनातन का आशय ही है धर्म-नियम-व्यवस्था का आदि से अंत तक सतत प्रवाह,हमारी विशेषता है कि हमने युगों-युगों में अपने धर्म को अपने ईश्वर को परिस्थिति के अनुरूप गढ़ा है और सँवारा है,तभी सभ्यताओं के विनाश के बाद भी हम सनातन हैं .
मनुस्मृति को पढ़िये .बहुत सी चीजें वामपंथी विश्लेषक वो भी गढ़ देते हैं,जो उसमें लिखा ही नहीं ,आपने वो पढ़ा और भावुक हो गये तो निस्संदेह आप मूर्ख हैं.आप इतिहास की उस धरोहर को नष्ट कर रहे जो आपके अतीत का आईना है,जहां से आपकी प्रकाश यात्रा यहां तक पहुंची है और अनवरत सतत सनातन चलने वाली है .
खैर…..आजकल मनुस्मृति को पढ़ने के बजाय सिर्फ जलाने के लिये ही छापा जाता है …… बाकी आपकी मर्जी.
– “फौजी की कलम से”
आप पत्थर फेंकने सड़कों पर उतरे,लेकिन कभी नहीं कहा- इस्लाम बाद में हिंदुस्तान पहले
क्या “आर्य” हिंदुस्तान के मूल निवासी नहीं हैं ?
60 लाख यहूदियों के मरने के बाद उन्होंने पूछा- हमारा वतन कहाँ है ?