पार्थ! युद्धाय कृतनिश्चय: ….
शुकुल सर का नाम सुने हैं आप! क्या कहा – नहीं! तब बलिया को अभी जाने ही नहीं आप।बलिया के ही हैं शुकुल सर। शुकुल सर हैं तो संस्कृत है, शुकुल सर हैं तो शांति हैं, शुकुल सर हैं तभी नैतिकता, आदर्श, विश्वबंधुत्व जैसे शब्द, शब्दकोश में जीवित हैं। बूझ गए न!
सन छियासी में इधर हम पैदा हुए उधर उन्होंने ‘भामह’ पर शोध ग्रंथ प्रस्तुत किया और विश्वविद्यालय में संस्कृत के आचार्य हुए। कल रात को आचार्य प्रवर का फोन आया उन्होंने कहा कि – असित बाबू हृदय पर हाथ रख कर कहो आपके घर में चाकू तलवार रिवाल्वर या लाठी है?
मैंने सही सही बताया – नहीं सर। ऐसा कुछ भी नहीं है।उन्होंने कहा कि – घर में साँप बिच्छू निकलता है तब? मैंने बता दिया कि – अगल बगल से लाठी भाला मांगना पड़ता है आगे कहा उन्होंने – अच्छा कभी किसी को मारे पीटे तो होंगे ही? 151 में चालान वगैरह? मैंने कहा कि – नहीं। आज तक किसी को भी एक थप्पड़ नहीं मारा मैंने। न ही किसी थाने में कोई बड़ा छोटा मामला ही दर्ज है।उन्होंने कहा – यही तो… आपका परिवार बुद्धिजीवियों का परिवार है, प्रोफेसरों का परिवार है, विद्वानों का परिवार है। युद्ध टाइप बातें आपके मुखारविंद से अच्छी नहीं लगती। विद्वान कभी भी युद्ध नहीं करते। युद्ध का विकल्प है। उसकी तलाश की जाए। कल से आपने लिख लिख कर ‘उन्माद’ फैला दिया है। मेरी लड़की जेआरएफ है संस्कृत से, आपको पढ़ कर अब वो भी कह रही है कि जरूरत होगी तो हम भी सेना के लिए जाएंगे।
यह अकेले शुकुल सर की बात नहीं सैकड़ों हजारों की संख्या है ऐसे विद्वानों की जो ‘युद्ध के विकल्प’ की तलाश में हैं।
पहली बात तो यह कि उन्माद और जोश में फर्क होता है। मैं जोश लिखता हूँ उन्माद कोठे पर पाया जाता है।
और यह भी भ्रम दूर कर लीजिए कि मैं युद्ध नहीं कर सकता। हर मनुष्य युद्ध में ही जन्मता और मरता है। अगर आप देख सकें तो पता चलेगा कि हर सेकेंड हम युद्ध में ही हैं। अगर आपके बाएँ बाजू पर खसरे की सूई का निशान बना है, और उसे देखने के लिए अभी जिंदा हैं आप, तो वही आपके युद्ध का पहला मैडल है। लड़े हैं हम खसरे से तब आज यह लिख- पढ़ रहे हैं। रोज लड़ते हैं हम हजारों तरह की बीमारियों से, समस्याओं से, भूख से, बेरोजगारी से, भ्रष्टाचार से। और जिंदा है इसका मतलब ही है कि हम जीत रहे हैं और मौत हार रही है। इसलिए युद्ध का विकल्प अगर कुछ होता है तो वह है मृत्यु। सोचिए कि आप जब स्वेटर पहन रहे होते हैं तो उस समय आप सर्दी से लड़ रहे होते हैं। आप खाना खाते समय भूख से लड़ रहे होते हैं। बस, ट्रेन में जल्दी जल्दी चढ़ते हैं उस समय आप भीड़ से लड़ रहे होते हैं… बस यही तो है युद्ध। नया क्या कर रहे हैं हम? इसलिए युद्ध से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं। हम शांति के लिए लड़ेंगे, हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ेंगे। हम धर्म की स्थापना के लिए लड़ेंगे।
चार्ल्स डार्विन ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘प्राकृतिक वरण द्वारा जातियों का चुनाव’ में लिखा है कि-‘ हर जीवधारियों में जीवन के लिए संघर्ष होता है और वही जाति जिंदा रहती है जो इस संघर्ष में विजयी होती है’।
रही बात विद्वता और विद्वानों की तो आइए ले चलता हूँ आपको कश्मीर। यह कुछ नाम पढ़िए – भामह, उद्भट, वामन, रुद्रट, आनन्दवर्धन, मुकुटभट्ट, भट्टनायक, अभिनवगुप्त, कुन्तक, महिमभट्ट, क्षेमेन्द्र, मम्मट, रुय्यक, वाग्भट्ट प्रथम, धनंजय भट्टतौत… आदि आदि और आदि। ये हमारे कश्मीर के वो विद्वान हैं जिनके कंधो पर संस्कृत साहित्य और हिंदी साहित्य ही नहीं आधा यूरोपीय साहित्य भी टिका हुआ है। बताइए कहाँ और किस हाल में हैं इनके विद्वता की पीढ़ियाँ?
क्या हुआ कश्मीरी विद्वान तो इतने विद्वान थे फिर आज उनका यह अंजाम कैसे हो गया? ‘ध्वन्यालोकलोचन’ लिखने वाले अभिनवगुप्त के वंशज आज कहाँ हैं? रस सूत्र के तीसरे व्याख्याता भट्टनायक कहाँ हैं? ‘औचित्य सिद्धांत’ के प्रवर्तक क्षेमेन्द्र का औचित्य कहाँ गया?
बड़ा सीधा सा जवाब है कि ये विद्वान थे और युद्ध में विद्वता नहीं वीरता जीतती है। शास्त्र नहीं शस्त्र जीतते हैं। इन्हें मालूम ही नहीं था कि शस्त्र जब चलते हैं तो शास्त्रों को मौन रहना चाहिए। इसीलिए सेनाओं में विद्वता की जगह वीरता का चयन होता है। पी एचडी की जगह विश्वविद्यालय में है और सीमा पर इंटर पास। इन इंटर पास सैनिकों की बदौलत ही हमारी विद्वता आज उफान मार रही है। एक दिन के लिए भी अगर ये सैनिक हमारे आपके तरह विद्वान बन जाएं तो हमारी यह कथित विद्वता या तो चरण चाटने लगेगी या रूदन करने लगेगी।
हर हिंदुस्तानी के अपमान का बदला है भारत की यह प्रतिक्रिया।रोज अपने सैनिकों को मरता नहीं देख सकते हम। एक ही दिन फाइनल हो जाए। वैसे भी जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। बड़े सालों के बाद उधर भी ‘कड़ी निंदा’ के स्वर उठे हैं इसका आनंद लिया जाए। आवश्यकता पड़ने पर ऐसी एक दो सर्जरी और भी हो।
आखिर योगिराज श्री कृष्ण ने भी कहा ही था – पार्थ! युद्धाय कृतनिश्चय : …
असित कुमार मिश्र
बलिया