देशभक्ति निभाने वालों को हमेशा सम्मान मिलता है । लोग उनकी वीरता की कहानियां आने वाली पीढ़ियों को सुनाते हैं, उन पर गर्व करते हैं। लेकिन इन्हीं वीर सपूतों में कुछ ऐसे भी होते हैं जिन पर देश को हमेशा गर्व तो रहता है लेकिन लोगों तक इनकी वीर गाथाएं पहुंच नहीं पातीं। वीरता केवल जंग में लड़ने से नहीं आंकी जाती । शारीरक बल से बड़ा होता है बौद्धिक बल व साहस । जंग के मैदान में सिपाही जान रहे होते हैं कि सामने से वार होने वाला है लेकिन कुछ वीर ऐसे भी होते हैं जो दुश्मन के खेमे में घुस कर ये पता लगाते हैं कि वार कब कहां और किधर से होने वाला है ।
आज भी हमारे देश की सुरक्षा के लिए कई वीर सपूत अपना घर बार यहां तक की अपनी असली पहचान भूल कर ऐसी जगहों पर बैठे हैं जहां किसी भी वक्त उनकी मौत का फरमान सामने आ सकता है । आम भाषा में इन्हें जासूस कहा जाता है । आज एक ऐसे ही जासूस के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के समय नाज़ी ताकत सहित कई अन्य देशों को बेवकूफ बना दिया ।
नेता जी को सुरक्षित काबुल पहुंचाने वाला शख्स
सन था 1941 और दिन था 16 जनवरी । नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हर हालत में सोवियत संघ पहुंचना था । लेकिन ये इतना आसान नहीं था । क्योंकि ब्रिटिश सैनिक हर जगह नेता जी की गंध सूंघने में लगे हुए थे । कहते हैं वेष बदलने में नेता जी का कोई सानी नहीं था । उनकी इस कला के सामने अच्छे अच्छे मात खा जाते थे । यही वो दिन था जब कलकत्ता में बैठे नेता जी को फ्रंटियर मेल से दिल्ली पहुंचना था । सैनिकों से बचने के लिए उन्होंने पठान का भेस बनाया हुआ था । इस समय उन्हें पहचाना लगभग नामुमकिन था लेकिन स्टेशन पर मौजूद एक आदमी ने इस नामुमकिन को मुमकिन करते हुए नेता जी को पहचान लिया । निश्चित ही इस समय नेता जी ने उस शख्स की पैनी नज़र की जम कर तारीफ की होगी । नेता जी को पहचानने वाला शख्स था रहमत खान, उर्फ़ सिल्वर उर्फ़ भगत राम तलवार (Bhagat Ram Talwar )

आंखों से सुरमा चुराना और गंजे को कंघी बेचने जैसी कहावतें शायद भगत राम तलवार जैसे लोगों को ही बनी हों । क्योंकि इनकी बुद्धि के आगे बड़े बड़े देश की सरकारें फेल हो गयीं । भगत राम जी का जन्म 1908 में एक संपन्न पंजाबी परिवार में हुआ था। इनके पिता गुरदास मल के ब्रिटिश राज के आला अफसरों से अच्छी दोस्ती थी लेकिन 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के बाद जब अंग्रेजों का अत्यंत क्रूर चेहरा दुनिया के सामने आया तब इनके पिता भी समझ गये कि ये गोरे कभी दोस्त नहीं हो सकते । बचपन से ही भगत राम तलवार के मन में देशभक्ति की भावना जागृत हो चुकी थी । ये देशभक्ति केवल इनके अंदर ही नहीं बल्कि इनके अन्य दोनों भाइयों के अंदर भी कूट कूट कर भरी थी । इनके भाई हरिकिशन को 1930 में एक गवर्नर पर गोली चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया तथा 9 जून 1931 में उन्हें फांसी दे दी गयी ।

इसके बाद से तो भगत राम तलवार के अंदर देश सेवा की भावना और तेज हो गयी । उन्हें हमेशा से कुछ बड़ा करना था । आर्य समाज आंदोलन से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी तक में भगत राम ने अपनी पहचान बनाई । वो दौर आज कि तरह बंटा नहीं था । विचारधाराएँ अलग थीं लेकिन लक्ष्य एक ही था और वो ये कि अपनी मातृभूमि को अंग्रेजी हुकूमत से आज़ाद कराया जाए। आज भले ही हर विचारधारा ने अलग अलग क्रांतिकारियों को अपना आदर्श बना लिया हो लेकिन उस समय हर कोई हर किसी की सहायता के लिए खड़ा होता था । तभी तो नेता जी को सुरक्षित सोवियत संघ पहुंचाने की ज़िम्मेदारी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े पदाधिकारियों ने भगत राम को सौंपी थी ।
भगत राम तलवार की ज़िम्मेदारी तो नेता जी को काबुल से निकाल कर सोवियत संघ के रास्ते जर्मनी और फिर जापान पहुंचाने की ही थी लेकिन उन्हें क्या पता था कि वो नेता जी के बहाने एक ऐसा इतिहास लिखने जा रहे हैं जो पहले किसी भारतीय ने नहीं लिखा था । काबुल जाने के लिए ना तो इन दोनों के पास कोई कागज़ात थे और ना ही पासपोर्ट । लेकिन जाना तो किसी भी कीमत पर था और वो भी सुरक्षित । नेता जी को काबुल से मास्को और फिर बर्लीन कैसे भेजा जाए ये बात काबुल में ही तय होनी थी ।
वो नाटा अफगानी
मिहिर बोस की किताब दि इंडियन स्पाई के मुताबिक 22 फरवरी 1941 कि दोपहर को एक छोटे कद का आदमी जो दिखने में एकदम सामान्य था ने काबुल स्थित इटेलियन दूतावास के दरवाज़े पर दस्तक दी । उस शख्स ने अफगानी टोपी, घुटनों से नीचे तक की लंबाई वाली कमीज़ और ढीला पजामा पहन रखा था । उसकी वेषभूषा के कारण किसी को उस पर शक नहीं हुआ । उसे इटैलियन अम्बेसडर से मिलना था । लेकिन ये इतना आसान नहीं था कि वह जाते ही अपनी इच्छा बताए और उसे एम्बेसडर के पास ले जाया जाए । इस बात का पता उस शख्स को भी था इसलिए वह पहले से ही प्लान बना कर आया था । उसने वहां के अधिकारियों से कहा कि वह एक रसोइया है और उसे एम्बेसडर के पास काम के लिए भेजा गया है । थोड़ी बहुत पूछताछ के बाद उसे एक बड़े से कमरे में ले जाया गया जहां मेज के उस ओर एम्बेसडर बैठा किसी अफगानी से बातें कर रहा था ।

उस शख्स ने एम्बेसडर से कहा कि मुझे हेर थॉमस ने भेजा है । सामसे से जवाब आया ‘किस काम के लिए ।’ शख्स ने जवाब दिया ‘मुझे नहीं मालूम, उन्होंने बस आपसे मिलने के लिए कहा है।’ एम्बेसडर समझ चुका था कि ये कोई साधारण अफगानी नहीं है । उसने तुरंत फोन का रिसीवर कान से लगाते हुए एक नंबर डॉयल किया । संभवतः यह थॉमस का ही नंबर था । कुछ देर बात हुई जिसके बाद फोन रखते हुए एम्बेसडर ने कहा ‘हेलो मेरा नाम पेट्रो क्यूरोनी है और मैं काबुल में इटली का एम्बेसडर हूं।
इसके बाद उस शख्स ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह रहमत खान है । हालांकि उन्होंने अपना असली नाम नहीं बताया और शायद इसके बाद उनका असली नाम कोई जान भी नहीं पाया । रहमत ने अपनी सच्चाई कुछ इस तरह बताई कि वह अफगानी नहीं बल्कि भारतीय हैं और उनके साथ एक और भारतीय भी है । उन्होंने आगे बताया कि उनके पास ना पासपोर्ट है और ना ही कोई अन्य ज़रूरी कागज़ात हैं। वे पेशावर से काबुल तक लगभग 200 किमी का सफर पैदल ही तय कर के आए हैं। अब उन्हें अपने साथी को बर्लिन से होते हुए जर्मनी भेजना है जहां वह भारत को अंग्रेजों से आज़ाद कराने के संबंध में बात कर सकें ।

कुछ दिन पहले ही नेता जी और रहमत खान ने काबुल में स्थित जर्मन दूतावास में कार्यरत हेर थॉमस के साथ संबंध स्थापित किया था । लेकिन काफी मुलाकातों के बाद भी नेता जी के काबुल से बाहर जाने का कोई रास्ता ना निकल सका। दोनों को यही डर था कि अगर वे ज़्यादा समय काबुल में रहे तो यहां कि पुलिस के हाथ आ जाएंगे और वे उन्हें ब्रिटिश सरकार के हवाले कर देंगे। पैट्रो ने इनकी समस्या का समाधान निकाल दिया और नेता जी के एक इटैलियन डिपलोमेट का पासपोर्ट दे दिया। काबुल का बार्डर पार करने के बाद उन्हें मॉस्को के लिए ट्रेन में बिठाया गया । मॉस्को से नेता जी बर्लीन पहुंचे । यहीं उन्होंने भारत को आज़ाद कराने के संबंध में हिटलर से मुलाकात की । इसके बाद नेता जी जापान निकल गये । जापान से लौटते समय ही नेता जी जिस विमान में थे वो क्रैश हो गया । कइयों ने माना कि नेता जी उसी क्रैश में चल बसे जबकि कइयों के लिए नेता जी उसके बाद भी जिंदा रहे ।
भारत का सिल्वर
नेता जी काबुल में अपने पीछे अपना एक एजेंट छोड़ गये थे । जिसका नाम तो भगत राम तलवार था लेकिन वहां उन्हें रहमत खान के नाम से पहचान मिली। कोई जासूस किसी एक देश के लिए काम करता है लेकिन भगत राम ने नाज़ियों को भी विश्वास में लिया, रूस को बताया के वह उनके हैं, जापान से भी दोस्ती की । इटली के लिए वह खान जासूस बन गये । इसके कुछ ही महीनों बाद रहमत इटली के एक्सिस साथी जर्मनी का काम भी करने लगे । लेकिन रहमत इन दोनों के नहीं हुए क्योंकि ये देश फांसीवाद के समर्थक थे और रहमत एक पक्के कम्युनिस्ट । दिखाने के लिए वह ब्रिटिश एजेंट भी बनें तथा यहीं उन्हें नया नाम मिला सिल्वर । सबसे रोचक बात तो ये थी कि उनके ब्रिटिश कंट्रोल ऑफिसर पीटर फ्लेमिंग जो कि जेम्स बांड के रचयीता कहे इयन फ्लेमिंग के भाई थे ने ही उन्हें सिल्वर नाम दिया ।
इतना ही नहीं जर्मनी ने उन्हें आयरन क्रॉस से सम्मानित किया जो नाज़ियों का सर्वोच्च सैन्य सम्मान था । इसके साथ ही उन्हें आज की कीमत के हिसाब से 2.5 मिलियन यूरो का इनाम भी दिया गया । लेकिन इन सबके बाद भी भगत उर्फ रहमत ने सबको चकमा दिया । मिहीर बोस की किताब सिल्वर : दि स्पाई हू फूल्ड द नाजीज़ में लिखा गया कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भगत राम ने इटली, जर्मनी, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन, जापान देशों के लिए एक एजेंट के तौर पर काम किया । लेकिन उनका लक्ष्य केवल भारत को आजादी दिलाने का था । वह इतने देशों के लिए डबल एजेंट की भूमिका निभाने वाले पहले जासूस थे।

भगत राम तलवार की जासूसी का लोहा बड़े बड़ों ने माना। वह केवल दसवीं पास थे, ठीक से अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी नहीं था, सबसे बड़ी बात थी कि भारतीय होने के नाते उनका रंग गेंहुआं था । फिर भी वह गोरे अंग्रेजों को मूर्ख बनाने में कामयाब रहे । कहा जाता है द्वीतीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद के बाद भगत राम गायब हो गये और फिर भारत की आज़ादी के बाद वह अपने देश लौटे । 1983 में उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में उनका निधन हो गया ।
आज भगत राम तलवार के बारे में भले ही ज़्यादा लोग ना जान रहे हों लेकिन उन्होंने देश के लिए जो किया उसके लिए हमें हमेशा उन पर गर्व रहेगा । एक जासूस का बलिदान सच में अतुल्य होता है क्योंकि सब कुछ गंवा कर देश के लिए अपना सारा जीवन समर्पित करने वाले इन वीरों को एक पहचान तक नहीं मिल पाती ।
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