फोटोग्राफी हमेशा से पसन्द रही है मुझे। अब इंसानी भाव को कैप्चर करना सीखने का एक फ्री का अच्छा उपाय यह है कि आप America’s next top model जैसे प्रोग्राम के देख डाले। फैशन इंडस्ट्री ज्यादातर लोगों के दिमाग में “superficial” चीज है, पर ध्यान से देखने पर पता चलता है कि कितना सूक्ष्म अंतर है जो एक मास्टरपीस और साधारण तस्वीर के बीच लकीर खींच देता है, या फिर शील-अश्लील के बीच या फिर एक टॉप मॉडल और लाखो सुंदर लड़कियों की भीड़ के बीच। सिर्फ बिस्तर पर सो कर आप ऊपर नहीं पहुँच सकते। वहाँ भी हर फ़ोटो सिर्फ “sexy” नहीं होती।
पहली बात यह है कि गृहलक्ष्मी ने सिर्फ स्तनपान कराती माँ की तस्वीर नहीं लेना चाहा है। यकीनन दर्जन भर फोटो के बीच उस फ़ोटो को निकाला गया जो सिर्फ स्तनपान कराती माँ की ममता नहीं दिखाती है, बल्कि साथ में ग्लैमर को भी कैप्चर करती है जिसे देखकर स्टॉल से आप पत्रिका उठा ले। इस तस्वीर को देखकर अभी शायद आप मेरी बात से इत्तफाक ना रखें पर ANTM के बीस-बाइस सीजन में फैशन फोटोग्राफी देखने के बाद रखने लगेंगे। वरना एक असाधारण रिश्ते के बीच कितने साधारण तरीके से होता आया है,यह काम बसों-ट्रेनों में, पिता और भाई तक के सामने बिना उस पोज के जिसमें आपकी मॉडल ने आधा ब्लाउज हटा कर यह काम किया है।
सच्चाई यह है कि हालिया सालों में स्तनपान पर बहस हमारी संस्कृति के बजाय पश्चिमी संस्कृति का हिस्सा बन रहा था। क्योंकि वहाँ लोग ज्यादा पढ़-लिख गये हैं तो कन्फ्यूज हैं कि सार्वजनिक स्थलों में यह काम होना चाहिये कि नहीं। जरा खँगालियेगा तो ऐसी खबरें मिलेंगी, ” स्त्री से कहा गया कि वह रेस्तरां के बजाय बाथरूम जाकर बच्चें का स्तनपान करवाये।” भारत में आप ऐसा कहने का सोच भी नहीं सकते।
अब दूसरी बात यह है कि भारत की पत्रिका ने इस मुद्दे को आखिर उठाया क्यों?
क्योंकि आज भी स्त्रीवाद में मुद्दा क्या उठाना हैं यह हम पश्चिम का मुँह ताककर डिसाइड करते हैं, जबकि सामाजिक मुद्दे हमेशा culture-specific होते हैं। एक विकासशील देश की औरतों का संघर्ष बहुत अलग है, विकसित देशों की स्त्री के संघर्ष से। हालाँकि दोनों जगह “स्त्री” और “संघर्ष” शब्द आने की वजह से हम इन्हें बगैर ध्यान से देखे एक जैसा ही मान लेते हैं।
कितनी जोरदार तैयारी होगी नीदरलैंड की स्त्रियों की कि एक ऐतिहासिक दिन वहाँ की आधी आबादी काम पर गयी ही नहीं, बराबरी के काम और वेतन के लिये। क्या कभी कोई पत्रिका ऐसी आती है जो जोरदार तरीके से यह बात उठा पाये कि कितना अंतर है पश्चिम की औरतों और हमारे यहाँ की औरतों के GDP में contribution में? क्या हम नीदरलैंड की उन औरतों की तरह कभी शिक्षा और रोजगार की बराबरी के लिए आधी आबादी को एक कर पायेंगे, अपनी इस तैयारी के साथ?
मेरी माँ या ऐसी तमाम औरतें क्या इत्तफाक रखेंगी स्तनपान के इस मुद्दे के साथ जब वो आज तक आराम से करवाती आयी है सार्वजनिक स्थलों पर यह काम? उन्हें यह सिखाने की जरूरत है कि वे कैसे अपने निर्णय लेने की क्षमता विकसित करें, कैसे खुद को आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनाये, दहेज के खिलाफ बोलना सीखे और पति को आर्थिक मदद देने की क्षमता भी रखे, नाकि कुछ अनहोनी होने पर गुजारा भत्ता के लिये अदालत की ओर टकटकी लगाये देखते रहे।
अब तीसरी बात यह है कि घूरना इस देश की समस्या है लेकिन बगल में स्तनपान करवाती औरत के बजाय एक लड़की को लोग ज्यादा घूरते हैं। सार्वजनिक स्थलों पर गोद में बच्चा लिये माताओं को लेकर आज भी देश काफी संवेदनशील है, हालांकि इक्के-दुक्के घटनाये समाज में रहेंगी जहाँ मानवता शर्मसार होगी। पर हर चीज किताब और अखबार से ही मत सीखिये। जाकर तमाम औरतों से पूछिये कि क्या उन्हें पब्लिकली स्तनपान करवाने में कभी ऐसी समस्या आयी है?? ज्यादातर औरतें जिंदगी में घूरी गयी होंगी पर स्तनपान करवाते वक्त नहीं।
अब यह आपकी आजादी है कि आप कौन सा मुद्दा उठाते हैं। पर आधी आबादी के बड़े हिस्से को दुःख है कि आप कभी भी हमारे जीवन के मुख्य संघर्षो के मुद्दे को उठाने के बजाय अक्सर ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिसपर कुछ मसाला बन सके। खैर स्त्रीवाद का फैशनेबल हिस्सा ( पूरा स्त्रीवाद नहीं) अपने फोटोग्राफर से ऐसा कुछ करवाती ही रहेगी और लोग अपना ध्यान सुदूर गाँव में बसी किसी महिला के संघर्षों के बजाय किसी केरल की मॉडल के बारे में जानने में लगाये।
मेघा मैत्रेय