उत्तर प्रदेश में कांशीराम 10 साल से सक्रिय थे। करीब 1980 से कांशीराम ( kanshiram ) ने यूपी की राजनीति पर नजरें गड़ा रखी थी और वे बहुजन समाज के नेता के रूप में राजनीति में अपनी पैठ बनाना चाहते थे । हालांकि इसमें उनको तब धक्का लगा जब वे 1988 में लोकसभा चुनाव हार गए । इससे हतोत्साहित न होकर काशीराम फिर जुट गए और जल्द ही वह दिन आया जब बहुजन समाज की राजनीति को एक नई दिशा मिलने वाली थी ।
1991 में इटावा उपचुनाव में कांशीराम की जीत हुई । लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद ये पहली बार था जब उन्हें दमखम दिखाने का मौका मिला । इस जीत ने बहुजन समाज के इस बड़े नेता को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इटावा सीट यादवों का गढ़ मानी जाती थी और इसे जीतकर मुलायम सिंह के सहयोग से कांशीराम पहली बार लोकसभा पहुंचे । उन्होंने भाजपा के प्रत्याशी को 20 हजार वोटों से हराया। हालांकि इससे पहले 1989 में बिजनौर से बसपा का खाता खुल चुका था जिसमे मायावती विजयी होकर लोकसभा पहुंची ।
दलित उत्थान के लिए संघर्षरत थे कांशीराम
कांशीराम उन दिनों बहुजन समाज के उत्थान के लिये काम कर रहे थे । वे बहुजन समाज मे नई चेतना और ऊर्जा भरना चाहते थे ताकि उनके हक और सम्मान के साथ कोई समझौता न हो । उनका मानना था कि दलित उत्थान तभी संभव है जब सत्ता में उनकी साझेदारी हो । 1991 के उपचुनाव की जीत ने बहुजन समाज की राजनीति में ऊर्जा भरने का काम किया ।
इंटरव्यू पढ़कर मिलने पहुँचे मुलायम सिंह यादव
उपचुनाव में जीत के बाद काशीराम ने एक इंटरव्यू दिया । उस इंटरव्यू में कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरणों की बात की । शायद वे उस आहट को भांप चुके थे जो उत्तर प्रदेश में बड़ा राजनीतिक बदलाव लेकर आने वाली थी । मुलायम सिंह यादव पिछडो के बड़े नेता के रूप में स्थापित हो रहे थे । वे खुद पिछड़े समाज ( यादव ) से आते थे जिनका यूपी में अच्छा खासा जनाधार था और काफी सीटों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता था ।
कांशीराम अपने भाषणों में बहुजन समाज यानी दलितों और पिछड़ों की बाते करते थे । उनका मानना था कि देश के 85 प्रतिशत पिछड़े -दलित मिलकर बड़ी राजनीतिक भूमिका निभा सकते है ।
उन्होंने अपने इंटरव्यू में कहा कि यदि मुलायम सिंह यादव चाहे तो उत्तर प्रदेश की सियासत पूरी तरह बदल सकती है । यदि वे हमसे हाथ मिला ले तो यूपी से सभी का सूपड़ा साफ कर दे ।
इस इंटरव्यू को पढ़ने के बाद मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम से मुलाकात की ।
नए राजनीतिक समीकरण का फार्मूला
कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरणों के बारे में समझाया । वे स्वयं बहुजन समाज यानी दलितों और पिछड़ों को प्रमुखता देते थे । उनका मानना था कि देश के 85 प्रतिशत पिछड़े -दलित मिलकर बड़ी राजनीतिक भूमिका निभा सकते है । उन्होंने समझाया कि मुलायम सिंह पिछडो पर बड़ा प्रभाव रखते है । यदि वे हाथ मिला ले तो मिलकर एक बड़ी राजनीतिक ताकत का रूप ले सकते है ।
कांशीराम ने मुलायम सिंह को राजनीतिक दल बनाने का सुझाव दिया ।
समाजवादी पार्टी के गठन का फैसला
मुलायम सिंह पहले जनता दल में थे जहां उन्हें वीपी सिंह का साथ पसंद नही आया तो चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी में गए । जिसके बाद दोनों में मतभेद हो गए। ये मतभेद बाहर भी आये और आरोप प्रत्यारोप का दौर चला। चंद्रशेखर ने उन्हें अति महत्वाकांक्षी बताया तो मुलायम ने उनपर कॉंग्रेस से नजदीकी बढ़ाने का आरोप लगाया।
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालतों और गतिविधियों से स्वयं मुलायम सिंह यादव भी परिचित थे । उन्हें भी लगने लगा था कि अब वो समय आ गया है जब वो पिछडो के बड़े नेता के रूप में खुद को स्थापित करे । फिर उन्हें कांशीराम के सुझाव और दलित पिछड़े समीकरण के जरिये सत्ता पाने का सुझाव भी सही लग रहा था । मुलायम सिंह यादव नई पार्टी के गठन का फैसला ले चुके थे ।
1992 में मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया । और समाजवादी पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष बने।
उत्तर प्रदेश में नई राजनीति का जन्म
अगले ही साल यूपी में विधानसभा चुनाव थे । 1993 के चुनाव में बसपा और समाजवादी पार्टी ने चुनाव लड़ा । समाजवादी पार्टी ने 256 सीटों पर ताल ठोकी वहीं बसपा ने 164 सीटों पर । चुनाव जीतकर पहली बार बहुजन समाज का नेतृत्व कर रही इन पार्टियों की सरकार बनी । मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने । मुलायम सिंह को गठबंधन की राजनीति का जनक बोला जाने लगा।
177 सीटों को जीतने के बाद भी भाजपा सत्ता से दूर थी। ये कह सकते है कि भाजपा विरोधी मोर्चा तैयार हो चुका था । इस चुनाव में बने बहुजन समाज के समीकरणों ने साढ़े 8 हजार से ज्यादा कैंडिडेट की जमानत जब्त करवा दी थी। ये एक ऐसा रिकॉर्ड था जो यूपी में पहली बार बना था और शायद आगे भी न बन पाए।