“एक सूतपुत्र पर एक ब्राह्मण का अन्याय, क्यों??”
गुरु परशुराम गहरी निद्रा में थे, लेकिन कुछ गीला सा स्पर्श होते ही चौंक कर खड़े हो गए और कह उठे,.. “यह सब क्या है ज्ञानमित्र?”
कर्ण ने सम्पूर्ण विनय के साथ कहा, “गुरुवर, आप मेरी गोद में गहरी निद्रा में रत थे। तभी कोई कीट मुझे काटने लगा। अगर मैं उसको भगाने का तनिक भी प्रयत्न करता तो आपकी निद्रा में व्यवधान पड़ता।”
उसकी गुरुभक्ति देखकर परशुराम को उसपर अत्यंत स्नेह उमड़ा, लेकिन उसके शरीर से इतना सारा रक्त बहता देख, सहसा उनकी आँखें सिकुड़ी और कुछ समझते ही कह उठे, “तू कौन है प्रवंचक? तू “भार्गव ब्राह्मण ज्ञानमित्र” नहीं हो सकता। क्योंकि ब्राह्मण किसी भी अन्याय का प्रतिरोध किये बिना इतना कष्ट नहीं सह सकता। तू कोई क्षत्रिय है, कौन है तू? और मैं पहले असावधानी में गलती कर गया, और तेरे ब्राह्मण कहने पर विश्वास कर लिया। लेकिन अब तेरा झूठ नहीं टिकेगा मेरे सामने। इसलिए सत्य बोल।”
आँखों में अश्रु भरे कर्ण परशुराम के पैरों पर गिर पड़ा,.. “मैं क्षत्रिय नहीं हूँ गुरुदेव, मैं हस्तिनापुर के सूत अधिरथ का पुत्र कर्ण हूँ।”
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गुरु परशुराम की आँखें क्रोध से लाल हो गईं, वे चीखे,.. “सूतपुत्र कर्ण,.. तूने अपनी वास्तविकता क्यों छिपाई मुझसे?”
“यदि मैं अपने को सूतपुत्र बताता, तो आप मुझे शिक्षा नहीं देते।”
गुरु ने चुभते हुए स्वर में कहा,.. “अच्छा तो यह है तुम्हारी नीति कर्ण? कोई तुम्हें शिक्षा नहीं देगा तो तुम उसको चुरा लोगे? तुम्हें किसी दुसरे की नारी, धन, सम्पदा पसंद आ गई तो तुम उसको चुरा लोगे?”
“नहीं गुरुदेव नहीं” कर्ण ने अपना माथा गुरु के चरणों में पटकता हुआ बोला, “मैं चोर नहीं हूँ। और विद्या पराया धन तो नहीं है। यह किसी विशेष व्यक्ति, समाज की कैसे हो सकती है? विद्या तो प्रकृति का वैसा ही धन है जैसे धूप, वायु जल हैं। कल कोई यह नियम बना दे कि वायु, जल पर सिर्फ ब्राह्मणों, क्षत्रियों का ही अधिकार है, तो यह अन्याय होगा गुरुवर।”
परशुराम ने अपनी वाणी को संयत करते हुए कहा,..
“तुम गुरु से तर्क कर रहे हो सूतपुत्र, तो तर्क ही सही। प्रकाश, जल, वायु किसी की संपत्ति नहीं हैं, ठीक है। लेकिन यदि कोई व्यक्ति, समाज, राज्य इनको अपने अधिकार में कर सके, तो यह उसी की संपत्ति है। जल किसी व्यक्ति की संपत्ति नहीं है, लेकिन कोई कूप खुदवाए अपने सामर्थ्य से, तो वह कूप उसी की संपत्ति होगा। नदी जिस भी राज्य से बहती है, उसकी सम्पदा पर उसी राज्य का अधिकार होता है। सागर तक के कुछ क्षेत्र भी राज्यों के अधीन आते हैं, और वहां से गुजरने वाले जलपोतों को मूल्य चुकाना पड़ता है। ठीक इसी तरह ज्ञान पर किसी का अधिकार नहीं है, परन्तु यदि किसी व्यक्ति विशेष का ज्ञान है तो उस व्यक्ति का ही सम्पूर्ण अधिकार होगा उस ज्ञान पर। ये उसकी इच्छा होगी कि वो किसे दे या किसे न दे। उसे छल प्रपंच से प्राप्त करना भी नीतियुक्त नहीं है। ज्ञान का क्रय करना भी उसे दूषित ही करता है।”
कुछ क्षण ठहर कर गुरुदेव पुनः बोले,.. “तूने मुझसे ये छल तो किया ही है, साथ ही साथ तर्क करके तूने यह भी साबित कर दिया है कि तुम अपनी इच्छा के आवेग में किसी भी सामजिक विधान को नहीं मानोगे। अपनी इच्छापूर्ति के लिए तुम उचित अनुचित कुछ भी करोगे। दुसरे व्यक्ति की इच्छा का तुम्हारे मन में कोई सम्मान नहीं है।”
कर्ण ने रोते हुए प्रतिवाद किया, “ऐसा न कहें गुरदेव। मुझे सूतपुत्र कह कर मेरा परिहास उड़ाया जाता रहा है, मेरा तिरस्कार होता है, इसलिए मैं इस तिरस्कार का प्रतिशोध लेना चाहता था।”
“कैसे? शस्त्र से? जो तुम्हें सूतपुत्र कहेगा तुम उसका वध करोगे?” गुरु की वाणी व्यंग्य मिश्रित थी।
“नहीं गुरुदेव, क्षत्रियों के बराबर क्षमता पाकर।”
गुरु परशुराम फिर से गंभीर वाणी में बोले, “देखो कर्ण, मैं ये निर्णय नहीं करूँगा कि सूतपुत्र बोलकर तुम्हारा कितना तिरस्कार किया गया है, या कितना स्वयं तुमने उसको अपना तिरस्कार समझ लिया है। अधिरथ, सूत होकर भी “सम्राट ध्रितराष्ट्र” के मित्र हैं। विदुर दासी पुत्र होकर भी सम्राट का मंत्री है। इन्होने तो तुम्हारी तरह खुद को क्षत्रिय बनाने का प्रयत्न तो नहीं किया। क्षत्रिय राजा, दीन हीन ब्राम्हणों के चरण छूते हैं, उनके आदेशों का पालन करते हैं, तो क्षत्रियों ने इसको कभी मान अपमान का विषय नहीं बनाया। विश्वामित्र क्षत्रिय थे, लेकिन उन्होंने क्षत्रियता इसलिए नहीं छोड़ी कि वो इसे छुद्र मानते थे। उन्होंने खुद को ब्रम्हऋषि इसलिए कहलवाया कि क्षत्रिय होकर उनको अपना विकास नहीं दिख रहा था। उन्होंने तुम्हारी तरह छल कपट का आचरण नहीं किया, बल्कि उन्होंने कठोर तपस्या से खुद को इस लायक बनाया कि लोग स्वयं उन्हें ब्रम्हऋषि मान लिए।”
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गुरु परशुराम ने कहना जारी रखा, “तुमने खुद को ब्राह्मण बताया, लेकिन ब्राह्मण बनने लायक कोई साधना नहीं की। इसकी जगह तुमने मिथ्या कथन का सहारा लिया। तुम्हारी आत्मा मुझे शुद्ध नहीं लगती। तुम क्या करोगे इस शस्त्र विद्या का? क्या तुम्हें आत्मरक्षा की आवश्यकता है??”
“नहीं गुरुदेव”
“तो क्यों चाहिए तुम्हें ब्रम्हास्त्र जैसे घातक हथियार, जो सारी पृथ्वी का सर्वनाश कर सकते हैं? असत्य बिलकुल मत बोलना, अन्यथा,…”
कर्ण कसमसा कर बोला, “झूठ नहीं बोलूँगा गुरुदेव। मैं कुंतीपुत्र अर्जुन की प्रगति से पीड़ित हूँ। मैं उससे भी बड़ा धनुर्धर बनना चाहता हूँ।”
गुरु परशुराम आवेश में बोले, “अब तुम्हारी वृत्ति खुल कर सामने आई। तुम्हें सूतपुत्र से कोई समस्या नहीं है, तुम्हें क्षत्रिय से भी कोई समस्या नहीं है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो तुम दुर्योधन सहित उसके सौ भाइयों से भी इर्ष्या करते। तुम एक एक सैनिक, एक एक क्षत्रिय कर्मचारी से ईर्ष्या करते। तुम ध्रितराष्ट से भी जलन रखते। तुम्हें अपने स्वयं के अहंकार के लिए ये विद्या चाहिए थी। तुम्हारी चेष्टा सृजन की है ही नहीं, तुम विनाश के प्रवर्तक हो। मैं पहले ही समझ गया हूँ कि तुम्हारी शस्त्र विद्या से किसी सज्जन की रक्षा नहीं होगी, ये सदा ही दुर्जनों के काम आएगी। द्रोंण ने उचित किया तुम्हें शिक्षा न देकर। अब इसी क्षण मेरा आश्रम छोड़ कर चले जाओ। अब तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है।”
अब कर्ण हठ पर उतर आया, लेकिन अपने शब्दों को दीन हीन बनाते हुए कहा, “मुझे इस प्रकार अधूरे में न छोड़ें गुरवर। बस मेरी ब्रम्हास्त्र की शिक्षा पूरी होते ही मैं यहाँ से प्रस्थान कर जाऊंगा।”
“असंभव,..!! मैंने तुम्हारे इस मिथ्या भाषण के फलस्वरूप अपने परशु से तुम्हारा सिर खंड खंड नहीं कर दिया। तुम्हें कोई दंड नहीं दिया, यही क्या कम है? अब जाओ यहाँ से। मुझसे अनजाने में तुम्हें शिक्षा देने का पाप तो हो गया, लेकिन मेरा शाप है, कि आवश्यकता पड़ने पर तुम्हें सीखी हुई विद्या भी भूल जायेगी।”
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– ई. प्रदीप शुक्ला
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