एक स्टडी के अनुसार भारत के 53 प्रतिशत बच्चे शोषण के शिकार हैं। ऐसी स्टडी अक्सर अनुमान होती है, कम भी हो सकती है, ज्यादा भी। एक तीन साल की बच्ची जाँघ पर लाल निशान लिए आती है। मैं पूछता हूँ, कहती है गिर गई। पर डॉक्टर हूँ तो निशान समझता हूँ कि यह तभी संभव है जब जोर से ‘पिंच’ किया गया हो। हल्की नींद में दुबारा पूछता हूँ, वह नींद में कहती है कि मैडम ने पिंच किया।
सवाल यह नहीं है कि किसी शिक्षक ने ‘पिंच’ कर दिया। सवाल यह है कि एक तीन साल के अबोध बच्चे ने झूठ बोलना कैसे सीख लिया? जाहिर है कि डराया गया होगा। कहा गया होगा, घर में न कहना। और बच्चा समझ भी गया। तीन साल का बच्चा!!
अमरीका के अधिकतर राज्यों में यह कानून है कि आपको बताना ही होगा, गर शोषण हुआ। आप नहीं बताते, तो आप को सजा होगी। नॉर्वे और ऑस्ट्रैलिया में भी ऐसे ही नियम हैं। भारत में ऐसा कोई कानून नहीं। मर्जी है बताओ, न मर्जी न बताओ। अधिकतर लोग नहीं बताते। हम डर जाते हैं, बचपन से ही। यह डर जिंदगी भर रहता है।
चार साल पहले ही बाल शोषण पर कानून आया। पर कुछ खास हुआ नहीं। नया कानून है, किसी को खास खबर नहीं। एक 38 साल की महिला का बलात्कार हुआ जिसकी मानसिक आयु 6 साल थी। आरोपी को बाल शोषण के लिए सजा हुई, और होना भी चाहिए। बचपन एक उम्र ही नहीं, मानसिकता है। यह केस हमारे कानून के विस्तृत होने का संकेत है। गर कड़ाई से लोग ठान लें, हर केस रिपोर्ट करें, तो सोचिए क्या होगा? 53 प्रतिशत यानी 20 करोड़ दोषी जेल में होंगें। अभी तो बीस भी नहीं हैं। हमने कुछ किया ही नहीं।
कुछ करिए। भारत का बचपन बचाइए, तभी सत्य की नींव पड़ेगी, और सुंदर भारत बनेगा। जंतर-मंतर पर पहुँचें। इतनी तादाद में कि, यह तमाम शोषक देख लें कि उनकी खैर नहीं। वक्त आ गया है, कि उन्हें जोर से ‘पिंच’ किया जाए।
10 सितंबर। 4 बजे शाम। जंतर-मंतर।
“ताकि जिंदा रहे बचपन”