जब आप करोलबाग मेट्रो से उतरेंगे तो रिक्सेेवालों का एक झुंड आपको अपनी तरफ खिंचेगा। उस झुंड में एक बूढ़ा भी होगा, मटमैले कुर्ते के ऊपर चटकते बैगनी जैकेट में।
समय के साथ उसके दाँतों ने उसका साथ छोड़ दिया पर इससे उसके आवाज को कोई फर्क नहीं पड़ा है। वह सामान्य से ज्यादा आवाज में चिल्लायेगा क्योंकि उसे सुनाई कम देता है। यह बात वह आपको जरूर बताएगा जैसे हर बार चिल्ला कर मुझे बताता है। बीच में कही रुकना हो तो मैं उसके पीठ पर उंगली भोकती हूँ। आपको भी यही करना होगा वरना वह चलता जायेगा।
हम दोस्त नहीं है पर पराया शहर आपको कई बेनामी रिश्ते देता है। यह रिक्से वाला भी मेरे लिए ऐसा ही है। उसे देखकर मैं अपनी तरफ बुलाती बाकी आवाजे छोड़ उसकी तरफ बढ़ जाती हूँ। मुझे देखकर तुरन्त वह रिक्सा खींचते हुये मेरी तरफ दौड़ लगा देता है।
कल रात दस बजे भी वहीं था स्टेशन पर। जब हम चले तो आधे रास्ते पर एक काम याद आया और मैं पैसे देकर उतर गयी।
दुकान में अपनी जरूरत की चीज खरीद रही थी तो अचानक पीछे से चिल्लाने की आवाज आयी,”तुम इतने रात को घर अकेली कैसे जाओगी? मैं इंतजार करूंगा।”
पास खड़े लड़के हंसने लगे। मैं भी बुलन्द आवाज में चीखी,”चली जाऊँगी,कोई दिक्कत नहीं है। आप जाओ।”
दस मिनट बाद दुकान से बाहर निकली तो भी वह वहीं खड़ा था। बिना कुछ बोले मैं बैठ गयी और वह चल दिया।
हर रोज अखबार भयावह खबरों से भरा होता है, पर फिर भी मेरा भरोसा है कि जब तक परवाह करने वाले ऐसे बेनामी रिश्ते जिंदा हैं, दुनिया बची रहेगी।
Small acts of kindness make all the difference sometimes
– मेघा मैत्रेय