“ताजमहल” हमारा अपना है !
अफ़ज़ाल अहमद की एक नज़्म है, जो हमेशा मेरे ज़ेहन में गूंजती रहती है : “काग़ज़ मराकशियों ने ईजाद किया/हुरूफ़ फ़ोनेशियनों ने/शायरी मैंने ईजाद की!”
हर वो चीज़ जो हमारे रोज़मर्रा में शुमार हैं, कहीं ना कहीं, किसी ना किसी ने ईजाद की होती है। सबकुछ किसी एक ने नहीं ईजाद किया होता है और ईजाद करने वालों की फ़ितरत से ईजाद की सिफ़त पर दाग़ भी नहीं लगता। दुनिया का क़ारोबार वैसे ही चलता है।
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“यूनानियों” ने नक़्शे ईजाद किए थे। उन्हीं नक़्शों से रास्ता तलाशते हुए “इंडस” नदी को लांघकर वे हिंदुस्तान चले आए थे। जेहलम की वादी में पुरु से लड़े और उसे हराया। उसी जंग में पुरु ने वैसे बेक़ाबू हाथियों को ईजाद किया था, जो अपनी ही फ़ौजों पर दौड़ पड़े थे।
“रोमनों” ने कैलेंडर ईजाद किए थे और महीनों के नामों को अपने शासकों के नामों से जोड़ दिया था। कैलेंडर नक़्शों से बेहतर ईजाद साबित हुए, इसका सबूत आप ये मान सकते हैं कि “रोमनों” ने “यूनानियों” की समूची तेहज़ीब पर कब्ज़ा कर लिया था, यहां तक कि उनके देवता भी हथिया लिए। इसी तरह से यूनानियों का “ज़ीयस” रोमनों का “जुपिटर” बन गया, यूनानियों का “इरोज़” रोमनों का “क्यूपिड” बन गया, अलबत्ता “अपोलो” तब भी “अपोलो” ही रहा।

कहते हैं घोड़ों की ईजाद “आर्यों” ने की थी और किंवदंती है कि जब वे अपने रथों पर धूल उड़ाते हुए सिंधु घाटी में आए थे तो “वृषभों” और “यूनिकॉर्न” की ईजाद करने वाले “मोहनजोदड़ो” के नगरवासी हतप्रभ रह गए थे।
“मिस्त्रियों” ने स्याही ईजाद करके “मराकेशियों” के काग़ज़ों को उनके होने के मायने दिए थे। “बेबीलोन” ने पहिये ईजाद किए थे। और तब “बेबीलोन” के बाशिंदे अपने पहियों पर इतना तेज़ दौड़े कि इतिहास के दायरों से बाहर चले गए!
“क्रेमोनाइयों” ने वायलिनें ईजाद की थीं, “वियनीज़” ने सिम्फ़नी, “वेनिशियंस” ने नहरें। “चीनियों” ने रेशम ईजाद किया था, “भारतीयों” ने दशमलव और “तुर्कों” ने कलमकारी का हुनर ईजाद किया!
सेब को गिरता देखकर “ग्रैविटी” ईजाद कर डाली थी न्यूटन ने। गैलिलियो ने “अंतरिक्ष” की ईजाद की थी। आइंश्टाइन ने उस अंतरिक्ष के अछोर प्रसार की। और “ब्लैक होल” के अजूबों को ईजाद किया था उस स्टीफ़न हॉकिंग्स ने, जो अपनी कुर्सी पर कमर सीधी करके नहीं बैठ सकता!
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आज हमारी ज़िंदगी इन तमाम रेशमों, कैलेंडरों, स्याहियों, वायलिनों और नहरों से भरी हुई हैं, जबकि हमने इनमें से कुछ भी ईजाद नहीं किया था।
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हाल ही में एक सूबे के शासक ने कहा कि “ताजमहल” को हिंदुस्तानियों ने ईजाद नहीं किया था, इसलिए वो हमारा नहीं है!
यक़ीनन, “ताजमहल” को “मुग़लों” ने ईजाद किया था। मीनारें मुग़लों ने ईजाद की थीं, चारबाग़ मुग़लों ने ईजाद किए थे, संगेमरमर मुग़लों ने ईजाद किए थे, हरम और हमाम भी तो मुग़लों की ही ईजाद हैं! लेकिन तब मुझे हमारी ज़िंदगी में शुमार ऐसी चीज़ों के नाम बता दीजिए, जो केवल हमारी ईजाद हों, किसी और की नहीं!
तहज़ीबें “लश्कर” की तरह होती हैं, आगे बढ़ती नदियों की तरह। हर जगह का रेत, नमक, रक्त और स्वेद लेकर वे चलती हैं। तेहज़ीबों के डौल में अनेक जोड़ होते हैं!
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आज हम भले याद ना रखना चाहें, लेकिन हक़ीक़त यही है कि “फ़ासिस्टों” ने “प्रोप्रेगैंडा” के लिए ही सही, लेकिन “डॉक्यूमेंट्री सिनेमा” की ईजाद की थी। हमने फ़ासिस्टों को हरा दिया और उनके डॉक्यूमेंट्री सिनेमा को सम्हालकर रख लिया। और नात्सियों ने रचा था आला दर्जे का “ऑटोमोबाइल”। अमरीका ने जर्मनों के पुलों, इमारतों और शहरों पर बम बरसाए और आज अमरीका की सड़कों पर जर्मन कारें दौड़ती हैं।
यही तेहज़ीब के उसूल हैं।
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“ताजमहल” हमारा है! शहंशाह अपनी क़ब्रों में कब से सो रहे हैं, बेगमों के कंकालों पर से त्वचा कबकी गल चुकी हैं, “ताजमहल” आज भी एक सफ़ेद फूल की तरह चांदनी में दमकता खड़ा है, “समय के गाल पर एक आंसू”!
“ताजमहल” हमारा है, हमें उस पर नाज़ है, और हमेशा रहेगा!
–सुशोभित सक्तावत
(विश्व सिनेमा, साहित्य, दर्शन और कला के विविध आयामों पर सुशोभित की गहरी रुचि है और पकड़ है। वे नई दुनिया इंदौर में फीचर संपादक के पद पर कार्यरत् हैं। )
क्या “आर्य” हिंदुस्तान के मूल निवासी नहीं हैं ?
60 लाख यहूदियों के मरने के बाद उन्होंने पूछा- हमारा वतन कहाँ है ?