हड़प्पा संस्कृति और मनुष्यता का इतिहास
नेपोलियन तो हिंदुस्तान तक पहुंचने का रास्ता खोजने चला था, लेकिन उसने खोज निकाला ईजिप्त का इतिहास !
यह पुरातत्व की दुनिया की सबसे बड़ी किंवदंती है।
नेपोलियन की फ़ौजों के नील नदी की घाटी में क़दम रखने से पहले तक ईजिप्त के पिरामिड, स्फिन्क्स, फ़ैरो सम्राट, तूतेनख़ामन की क़ब्र, ममियां और क्लेओपात्रा का सौंदर्य, यह सब एक रहस्य ही था।
1798 में नेपोलियन अपनी फ़ौजें लेकर ईजिप्त पहुंचा और नील नदी की घाटी में उसने जंग छेड़ दी।
विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले फ्रांसीसी सम्राट का मक़सद ऑटोमन साम्राज्य में सेंध लगाना, हिंदुस्तान में मौजूद ब्रिटिश हुक़ूमत के मिस्र से क़ारोबारी रिश्तों पर रोक लगाना और इसी के साथ ही हिंदुस्तान पर धावा बोलने की तैयारी करना था। यही मनसूबा मन में संजोये बड़ोदा के गायकवाड़ों से वह पहले ही चिट्ठी-पत्री के माध्यम से संपर्क में था।
ये सब तो हुआ नहीं, उल्टे नेपोलियन के इंजीनियर फ्रांसुआ ज़ावियर बोउशा ने जुलाई 1799 में मिस्र के अपने अनुसंधान के सिलसिले में खोज निकाला “रोसेत्ता शिलाखंड”, जिस पर मिस्र के इतिहास के सभी सुराग़ उत्कीर्ण थे।
और सहसा चार हज़ार साल पुराने सभी राज़ एक-एक कर खुल गए!
सभी पुरातन सभ्यताओं में से एक सिंधु घाटी की सभ्यता ही ऐसी है, जिसकी लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
और विडंबना के व्याकरण में अगर बोलना चाहें तो आप कह सकते हैं कि हो ना हो, इसका कारण यही होगा कि नेपोलियन की फ़ौजों जैसे जुनूनियों के किसी जमघट ने अभी तक सिंधु घाटी की छानबीन नहीं की।
मोहनजोदड़ो का अपना “रोसेत्ता शिलाखंड” अभी तक खोजा जाना बाक़ी है। क्योंकि यह तो संभव ही नहीं है कि मोहनजोदड़ो के पास वैसा कोई अभिलेख ना हो।
बेबीलोन में “क्यूनीफ़ॉर्म” लिपि पाई थी।
ईजिप्त में “हाइरोग्लिफ़” लिपि।
अभी तक यह मालूम नहीं किया जा सका है कि सिंधु घाटी की सभ्यता की लिपि “क्यूनीफ़ॉर्म” है या “हाइरोग्लिफ़”। वह “अल्फ़ाबेट” पर केंद्रित है या “सिलेबरी” पर? वह “लोगोग्राफ़िक-सिलेबिक” लिपि है या नहीं। वह ईजिप्त की ही तरह “पिक्टोरियल” लिपि अवश्य है, किंतु उसकी गुत्थी सुलझने नहीं पाती।
लगभग चार फ़ीट लंबा “रोसेत्ता शिलाखंड” ऊपर से लेकर नीचे तक उत्कीर्ण है, जिस पर 196 ईसा पूर्व में टॉलेमी चतुर्थ ने प्राचीन यूनानी और मिस्री भाषाओं में र्इजिप्त की प्रशस्ति में अभिलेख खुदवाए थे।
किंतु सिंधु घाटी से प्राप्त मुद्राओं पर एक साथ पांच से अधिक अक्षर नहीं पाए जाते हैं।
धौलावीरा में खुदाई के दौरान एक ऐसी भी पट्टिका प्राप्त हुई थी, जिस पर एकसाथ 26 अक्षर थे। जब वह पट्टिका मिली तो पुराविदों की सांसें थम गई थीं। क्या यह हड़प्पा संस्कृति की “रोसेत्ता शिला” है, जो अंतत: उस अबूझ लिपि को बूझने में हमारी सहायता करेगी, उन्होंने एक-दूसरे से पूछा।
किंतु वैसा ना हो सका। हड़प्पा लिपि को पढ़ा नहीं जा सका। मोहनजोदड़ो की “रोसेत्ता शिला” की तलाश अभी तक जारी है।
यह मानने वाले कम नहीं हैं कि सिंधु लिपि या सरस्वती लिपि से ही ब्राह्मी लिपि का आविर्भाव हुआ है। ब्राह्मी लिपि पढ़ी जा चुकी है, किंतु सरस्वती लिपि नहीं।
सुमेर और बेबीलोन से हड़प्पा वासियों के व्यापारिक रिश्ते थे। पुराविद इस खोज में भी हैं कि अगर कोई “द्विभाषी” सील प्राप्त हो जाए, जिस पर एक तरफ़ सुमेर या मेसापोटामिया की लिपि हो और दूसरी तरफ़ सिंधु घाटी की, तब उसका लिप्यांतर पढ़ा जा सकेगा। अभी तक ऐसी कोई द्विभाषी सील भी नहीं मिली है।
यह भी पता नहीं चल सका है कि सरस्वती लिपि में कितने वर्ण या स्वर थे : 12 से लेकर 958 तक इनकी गणना की जाती है।
मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक यूनिकॉर्न सील पर चार अक्षरों का एक रहस्यमय सूत्र अवश्य प्राप्त हुआ था, जिसकी समतुल्यता ऋग्वेदिक मंत्रों से की गई है। किंतु निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।
जिस दिन नेपोलियन की फ़ौजों की तरह पुराविदों की कोई अठारह अक्षौहिणी सेना हड़प्पा संस्कृति की अपनी विशाल “रोसेत्ता शिला” तलाश लेगी, उस दिन मनुष्यता का इतिहास फिर से लिखा जावैगा।
भारत का तो निश्चित ही।
-सुशोभित सक्तावत
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